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________________ ३८० कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) स्थापना करते हैं। (७) निर्माणनामकर्म - इस कर्म के उदय से जीव के शरीर के अंग- उपांग अपनी-अपनी जगह यथास्थान व्यवस्थित होते हैं। जैसे- चित्रकार या मूर्तिकार चित्र या मूर्ति के हाथ-पैर आदि तमाम अवयवों को यथास्थान चित्रित करता या बनाता है, वैसे ही निर्माण नामकर्म के प्रभाव से भी जीव के अंग- उपांग आदि की यथास्थान व्यवस्थित रीति से स्थापित होते हैं। यदि यह कर्म न हो तो अंगोपांग नामकर्म के उदय से बने हुए अंग- उपांगों का अपने - अपने स्थान पर - यथोचित स्थान पर व्यवस्थापन - नियमन नहीं हो सकता। यह कर्म शिल्पी या कारीगर के तुल्य होता है। (८) उपघातनामकर्म-जिस कर्म के उदय से जीव अपने शरीर के अवयवों से स्वयं क्लेश पाता है। जैसे- प्रतिजिह्वा, चोरदंत ( होठ के बाहर निकले हुए दांत), लम्बिका (छठी अंगुली ) आदि शरीरावयवों की उपघातक अवयवों में गणना की जाती है । ' इससे व्यक्ति को स्वयं कष्ट होता है। त्रसदशक की दस प्रकृतियाँ : स्वरूप और कार्य द्वन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के जीव त्रस कहलाते हैं। उनमें पाई जाने वाली प्रकृतियों की संख्या दस होने से त्रसदशक नाम से कहलाती हैं। उनके नाम इस प्रकार हैं- (१) त्रसनाम, (२) बादरनाम, (३) पर्याप्तनाम, (५) प्रत्येकनाम, (५) स्थिरनाम, (६) शुभनाम, (७) सुभगनाम, (८) सुस्वरनाम, (९) आदेय नाम और (90) यशःकीर्तिनामकर्म। लक्षण - (१) त्रसनामकर्म - जिस कर्म के उदय से जीव को त्रसकाय की प्राप्ति हो, वह स नामकर्म है । द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय; ये त्रस जीवों के ४ प्रकार हैं। त्रस जीव सर्दी गर्मी आदि से अपना बचाव करने के लिए एक स्थान को छोड़ कर दूसरे स्थान में जा सकते हैं। यद्यपि तेजस्काय और वायुकाय के जीवों के स्थावर नामकर्म का उदय है, किन्तु त्रस की-सी गति, सदृशता होने से उन्हें त्रस कहा जाता है। इस तरह त्रस दो प्रकार के होते हैं - गतित्रस और लब्धित्रस। द्वीन्द्रिय से - कम्मपयडी ९६ - प्रथम कर्मग्रन्थ ४५ (ख) अणुसिण पयासरूवं जियंगमुज्जोयए इहुज्जोया । (ग) जइदेकतर - विक्कियजोइस खज्जोयमाइव्व । -वही, ४५ (घ) यदुदयाद् जन्तुशरीरं न गुरु न लघु नापि गुरु-लघु, किन्त्वगुरुलघु- परिणाम- परिणतं भवति, तदगुरुलघुनामेत्यर्थः । - वही, टीका ४६ (ङ) बस्योदयात् अयः पिण्डवत् गुरुत्वात् न पतति, न चार्कतूलवत् लघुत्ववादूर्ध्वं गच्छति, तद् -कम्मपयडी टीका ९५ अगुरुलघुनाम । (च) से उदओ केवलिणो । तीर्थकरनामकर्मणः उदयः विपाकः केवलिनः उत्पन्नकेवलज्ञानस्यैव । (छ) यदुदयाद् जन्तुशरीरेस्वंगोपांगानां प्रतिनियतस्थानं वृत्तिता भवति, तन्निर्माणनामेत्यर्थः । (ज) सुत्तहारसमं । (झ) उवघाया उवहम्मइ सतणुवलयल विंगाईहिं । १. (क) उण्हूण पहा. हु उज्जोवो । Jain Education International For Personal & Private Use Only - प्रथम कर्मग्रन्थ ४७, टीका www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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