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________________ उत्तर-प्रकृतिबन्ध : प्रकार, स्वरूप और कारण-५ ३८१ लेकर पंचेन्द्रिय तक के जीव त्रसनामकर्म के उदय वाले होने से लब्धित्रस है और वे ही मुख्यतया त्रस कहलाते हैं। तेजस्कायिक और वायुकायिक तो त्रसजीवतुल्य गतिशील होने से उपचार से गतित्रस माने जाते हैं, यथार्थतः नहीं। ___ (२) बादरनामकर्म-जिस कर्म के उदय से जीव को बादर (स्थूल) काय की प्राप्ति हो; वह बादरनामकर्म कहलाता है। जिसे आँखों से देखा जा सके, उसका नाम बादर नहीं है, क्योंकि कई बादर पृथ्वीकाय आदि का शरीर ऐसा भी होता है, जो आँखों से नहीं देखा जा सकता; अपितु बादरनामकर्म वह है, जो पृथ्वीकाय आदि जीवों में बादर परिणाम उत्पन्न करता है, जिससे उन जीवों के शरीर-समुदाय में एक प्रकार की अभिव्यक्ति की क्षमता प्रकट हो जाती है, वे शरीर दृष्टिगोचर हो सकते हैं। यह जीव-विपाकिनी कर्म प्रकृति है, जो शरीर के माध्यम से जीव में (पदगलों में नहीं) बादर-परिणाम को उत्पन्न करती है, और उससे वे दृष्टिगोचर होते हैं। किन्तु जिन्हें इस कर्म का उदय नहीं, ऐसे सूक्ष्म जीव समुदायरूप में एकत्रित भी हो जाएँ तो भी वे दिख नहीं सकते। जीव विपाकिनी प्रकृति बादर होने से उसका शरीर में प्रभाव दिखाना प्रत्यक्ष है। जैसे-क्रोध जीव विपाकिनी प्रकृति होने पर भी उसका उद्रेक मुँह का टेढ़ा होना, आँखें लाल होना तथा होठों का फड़कना आदि परिणामों द्वारा प्रकटरूप में दिखाई देता है। (३) पर्याप्तनामकर्म-जिस कर्म के उदय से जीव अपनी-अपनी पर्याप्तियों से युक्त होते हैं, वह पर्याप्तनामकर्म कहलाता है। जिसके द्वारा पुद्गलों को ग्रहण करने, उनका आहार, शरीर आदि के रूप में बदल देने का जो कार्य होता है, जीव की उस शक्ति को पर्याप्ति कहते हैं। पर्याप्तियों से युक्त हो, वह पर्याप्त है। पर्याप्ति ६ प्रकार की होती हैं-(१) आहार, (२) शरीर, (३) इन्द्रिय, (४) श्वासोच्छ्वास, (५) भाषा और (६) मनःपर्याप्ति। ... औदारिक, वैक्रिय और आहारक, इन तीन शरीरों में पर्याप्तियाँ होती हैं। औदारिक शरीर वाला जीव पहली आहार-पर्याप्ति एक समय में और उसके बाद दूसरी से लेकर छठी पर्याप्ति पर्यन्त प्रत्येक क्रमशः अन्तर्मुहूर्त-अन्तर्मुहूर्त में पूर्ण करता है। वैक्रिय और आहारक शरीर वाले जीव पहली पर्याप्ति एक समय में पूर्ण कर लेते हैं और इसके अनन्तर अन्तर्मुहूर्त में दूसरी शरीर-पर्याप्ति पूर्ण करते हैं। तदनन्तर तीसरी, चौथी, पाँचवीं और छठी पर्याप्ति अनुक्रम से एक समय में पूरी करते हैं। किन्तु पाँचवीं और छठी इन दोनों पर्याप्तियों को अनुक्रम से एक साथ एक समय में ही पूर्ण कर लेते हैं। ___ पर्याप्तियों के बनने और पूर्ण होने का क्रम इस प्रकार है-इहभव-सम्बन्धी शरीर का परित्याग करने के बाद विग्रहगति में रहा हुआ जीव परभवसम्बन्धी शरीर को ग्रहण करने हेतु उत्पत्ति-स्थान में पहुँचकर कार्मण शरीर के द्वारा स्थूलशरीरादि बनने योग्य जिन पुद्गलों को प्रथम समय में ग्रहण करता है, उन पुद्गलों के आहार-पर्याप्ति आदि रूप ६ विभाग होते हैं और उनके द्वारा एक साथ छहों पर्याप्तियों का बनना Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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