SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 427
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उत्तर-प्रकृतिबन्ध : प्रकार, स्वरूप और कारण-५ ३७९ तथा शरीर के अंदर की वायु को नाक द्वारा बाहर निकालना उच्छ्वास है। इन दोनों क्रियाओं को सम्पन्न करने की शक्ति जीव को उच्छ्वासनामकर्म के द्वारा प्राप्त होती है। (३) आतपनामकर्म-जिस कर्म के उदय से जीव का शरीर स्वयं उष्ण न होकर भी उष्ण प्रकाश करता है। जिन जीवों को आतपनामकर्म का उदय होता है, उनका शरीर स्वयं तो ठंडा होता है, किन्तु प्रभा ही उष्ण होती है, इस कारण वे उष्ण प्रकाश करते हैं। आतपनामकर्म का उदय सूर्य-मण्डल (बिम्ब) के बाहर एकेन्द्रिय पृथ्वीकायिक जीवों के होता है, इन जीवों के सिवाय अन्य जीवों के आतपनामकर्म का उदय नहीं होता; न ही अग्निकायिक जीवों के आतपनामकर्म का उदय होता है। अग्निकायिक जीवों का शरीर और प्रकाश भी उष्ण होता है, वह उष्ण स्पर्शनामकर्म और लोहित वर्ण नामकर्म के उदय के कारण होता है। आतपनामकर्म और उष्णस्पर्शनामकर्म वाले जीवों में यही अन्तर है। (४) उद्योतनामकर्म-जिस कर्म के उदय से जीव का शरीर अनुष्ण शीतल प्रकाश फैलाता है, उसे उद्योतनामकर्म कहते हैं। लब्धिधारी मुनि जब वैक्रिय शरीर धारण करते हैं, अथवा देव जब मूल शरीर की अपेक्षा उत्तरवैक्रिय शरीर धारण करते हैं, उस समय उनके शरीर से जो शीतल प्रकाश निकलता है, उसका कारण उद्योतनामकर्म का उदय है। चन्द्र, नक्षत्र और ग्रह तथा तारामण्डल के पृथ्वीकायिक जीवों के शरीर उद्योतनामकर्म से युक्त होने से शीतल प्रकाश फैलाते हैं। इसी प्रकार जुगुनू, रल एवं प्रकाश फैलाने वाली दूसरी औषधियों में भी इसी उद्योतकर्म. का उदय जानना चाहिए। (५) अगुरुलघुनामकर्म-इस कर्म के कारण जीव को अपना शरीर लोहवत् न तो भारी मालूम होता है कि संभाला ही न जाये, न ही आक की रूई की तरह इतना हल्का मालूम होता है कि हवा से उड़ जाए; और न गुरुलघु; किन्तु अगुरुलघु परिणाम वाला होता है, उसे अगुरुलघु-नामकर्म कहते हैं। (६) तीर्थकरनामकर्म२-जिस कर्म के उदय से जीव को तीर्थंकर-पद की प्राप्ति होती है। तीर्थंकरनामकर्म का उदय केवलज्ञान उत्पन्न होने पर ही होता है। तीर्थंकर अधिकारयुक्त वाणी में उत्सर्गमार्ग एवं धर्म का प्ररूपण करते हैं, जिसका स्वयं आचरण. कर स्वयं ने इस कृतकृत्य दशा की प्राप्ति की है, तथा वे धर्मतीर्थ की १.. (क) प्रथम कर्मग्रन्थ २५ (ख) प्रज्ञापना २/२३/२९३ (ग) समवायांग, समवाय ४३ (घ) यदुदयात् परेषां दुष्प्रधर्षः तत् पराघात नामर्त्यः । परधा उदया पाणी परे दिन बलिणं पि होइ । -प्रथम कर्मग्रन्थ ४३ (ङ) आतपनामोदयाद्जीवानामंग स्वयं अनुष्ण अत्युष्णदुद्धरिसो। -प्रथम कर्मग्रन्थ ४३ . प्रकाश-युक्तं भवति । -वही ४४ (च) रविबिम्बे भानुमण्डलादि पार्थिवशरीरेष्वेव । -वही ४४ न उ जलणे। -वही ४४ २. तीर्थकरनामकर्मबन्ध के २० बोलों के लिए देखें -ज्ञातासूत्र अ. ८/६४, तत्त्वार्थसूत्र ६/२३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy