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________________ ३७८ कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) नरकगति, तिर्यञ्चगति, मनुष्यगति या देवगति को प्राप्त करता है, तब वह क्रमशः नरकानुपूर्वी नामकर्म, तिर्यंचानुपूर्वी नामकर्म, मनुष्यानुपूर्वी नामकर्म और देवानुपूर्वी नामकर्म कहलाता है। ' (१४) विहायोगति नामकर्म - जिस कर्म के उदय से जीव की गति (चाल) हाथी या बैल के समान शुभ अथवा ऊँट या गधे के समान अशुभ होती है, उसे विहायोगतिनामकर्म कहते हैं। इसके दो भेद हैं - शुभविहायोगति और अशुभविहायोगति । जिस कर्म के उदय से जीव की चाल (गतिक्रिया) हाथी या बैल के समान प्रशस्त हो, उसे शुभविहायोगति नामकर्म और जिस कर्म के उदय से जीव की चाल ऊँट या गधे के समान अशुभ- अप्रशस्त हो, उसे अशुभविहायोगतिनामकर्म कहते हैं। यहाँ गति का विहायस् विशेषण पुनरुक्ति दोष निवारणार्थ दिया गया है। अन्यथा सिर्फ गति शब्द रहता तो चौदह पिण्ड प्रकृतियों में पहली प्रकृति का नाम भी गति था । उससे भिन्नता बताने हेतु विहायस् शब्द गति से पूर्व लगाया गया है। विहायस् शब्द से अर्थ होता है, गति-प्रवृत्ति, न कि भवगति इत्यादि । इस प्रकार चौदह पिण्ड प्रकृतियों के क्रमशः गति ४, जाति ५, शरीर ५ अंगोपांग ३, बन्धन ५ ( प्रकारान्तर से १५), संघात ५, संहनन ६, संस्थान ६, वर्ण ५, गन्ध २, रस ५, स्पर्श ८, आनुपूर्वी ४ और विहायोगति २, यों कुल ६५ भेद हुए । बन्धन नामकर्म के १५ भेद गिनने पर 90 भेद और बढ़ जाते हैं । २ नामकर्म की आठ प्रत्येक प्रकृतियों का स्वरूप (१) पराघातनामकर्म - जिस कर्म के उदय से जीव बलवानों के लिए भी दुर्धर्ष अपराजेय हो, उसे पराघातनामकर्म कहते हैं । (२) उच्छ्वासनामकर्म - जिस कर्म के उदय से जीव श्वासोच्छ्वास नामक लब्धि (शक्ति) से युक्त होता है, वह उच्छ्वासनामकर्म है। शरीर से बाहर की वायु को नाक से अंदर खींचना श्वास है, १. (क) अनुश्रेणि गतिः । अविग्रहा जीवस्य । विग्रहवती च संसारिणः प्राक् चतुर्भ्यः । एक समयोऽविग्रहः । - तत्त्वार्थसूत्र २/२७ से ३० तक (ख) कर्मप्रकृति से पृ. ९६ से ९९ (ग) पुव्वी उदओवक्के । पूर्व्याः - आनुपूर्व्या वृषभस्य नासिकारज्जुकल्पनाया उदयः विपाको वक्र एव भवति । - प्रथम कर्मग्रन्थ टीका ४३ - प्रथम कर्मग्रन्थ ४३ २. (क) सुह- असुहव सुट्ट-विहगगई । (ख) कम्मपयडी ७५ (ग) यदिरित्येवोच्यते तदा नाम्नः प्रकृतिरपिगतिरस्तीति पौस्त्याशंका स्यात् । तद्व्यवच्छेदार्थं विहायोग्रहणम् कृतम् । विहायसा गतिः प्रवृत्तिर्न तु भवगतिर्नारकादीकेति । - प्रथम कर्मग्रन्थ टीका २४ - प्रथम कर्मग्रन्थ ३० (घ) गइयाईण उ कमसो चउपण-पण- तिपण-पंच-छच्छक्कं । पण दुग-पणट्ठ-चउ-दुग इय उत्तर भेये पणसट्टी ॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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