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________________ उत्तर-प्रकृतिबन्ध : प्रकार, स्वरूप और कारण-५ ३७७ जैनकर्मविज्ञान में आनुपूर्वी नामकर्म के अस्तित्व द्वारा मुख्यतया संसारी जीव की उस अन्तराल गति के सम्बन्ध में विचार किया गया है, जो मरणोपरान्त दृश्यमान भौतिक शरीर के न रहने पर भी जन्मान्तर में पहुँचने के लिए होती है। पुनर्जन्म और पूर्वजन्म के मानने वाले सभी आस्तिक दर्शनों ने जीव की इस अन्तराल गति के बारे में अपने-अपने मन्तव्य प्रस्तुत किये हैं। जैनकर्मविज्ञान ने इसे आनुपूर्वी नामकर्म कहा ऋजुगति वह है, जिसमें पूर्वस्थान से नये स्थान तक जाने में सरल रेखा (बिना मोड़ वाली रेखा) का भंग न हो, अर्थात्-एक भी घुमाव (मोड़) न लेना पड़े। वक्रगति वह है, जिसमें पूर्वस्थान से नये स्थान तक जाने में सरल रेखा का भंग हो; अर्थात्घुमाव लेना पड़े। जब कोई प्रतिघातक कारण हो, तब जीव की श्रेणी सरल रेखा को छोड़कर वक्रगति भी होती है। तात्पर्य यह है-जीव की विग्रहगतिक्रिया या प्रतिघातक निमित्त के अभाव में पूर्वस्थान-प्रमाण सरल रेखा (ऋजुगति) से और प्रतिघातक निमित्त के सद्भाव से वक्रगति (मोड़-घुमाव वाली रेखा) से होती है। ऋजुगति से स्थानान्तर जाते समय जीव को किसी प्रकार का प्रयत्न नहीं करना पड़ता, तब उसे पूर्वशरीरजन्य वेग मिलता है। और उसी के वेग से अन्य प्रयल के बिना धनुष से छूटे हुए बाण की तरह सीधा अपने नये स्थान पर पहुँच जाता है, जबकि वक्रगति (घुमाव वाली गति) से जाते हुए जीव को नये प्रयल की अपेक्षा होती है; क्योंकि पूर्व शरीर जन्य प्रयत्न वहाँ तक ही काम करता है, जहाँ से जीव को घूमना पड़ता है। और तब वक्रगति वाले जीव के नवीन आयु-गति के अतिरिक्त आनुपूर्वी नामकर्म का उदय हो जाता है। पूर्वशरीर छोड़कर स्थानान्तर को जाने वाले जीव दो प्रकार के होते हैं। एक वे, जो सदा-सदा के लिए स्थूल-सूक्ष्म सभी शरीरों को छोड़कर मोक्षगति में स्थानान्तरित हो जाते हैं। ऐसे मुक्त जीव मोक्ष के नियत स्थान पर ऋजुगति से ही जाते हैं, वक्रगति से नहीं, उन्हें वहाँ पहुँचने में सिर्फ एक समय लगता है। दूसरे वे हैं, जो पूर्व स्थूल शरीर को छोड़कर नये स्थूल शरीर को प्राप्त करते हैं, वे अन्तरालगति के समय सूक्ष्मशरीर (तैजस-कार्मण) से वेष्टित होते हैं। वे संसारी कहलाते हैं। ऐसे संसारी जीवों की गति ऋजु और वक्र दोनों प्रकार की होती है। क्योंकि उनके उत्पत्ति स्थान का कोई नियम नहीं है। उनका उत्पत्ति स्थान कभी वर्तमान स्थिति-स्थान से नीचे, ऊपर, सीधा, तिरछा आदि हो सकता है। वक्रगति में घुमावों की संख्या एक, दो या तीन हो तो क्रमशः दो, तीन या चार समय उत्पत्ति स्थान पर पहुँचने में लग जाते हैं। संसार में उत्पत्ति स्थान नरकादि चतुर्गतिकरूप है और गति नामकर्म के चार भेद होने से आनुपूर्वी नामकर्म के भी चार प्रकार हो जाते हैं-नरकानुपूर्वी, तिथंचानुपूर्वी, मनुष्यानुपूर्वी और देवानुपूर्वीनामकर्म। लक्षण-इस कर्म के कारण विग्रहगत्यवस्था में समश्रेणी में गति करता हुआ जीव विश्रेणी में अवस्थित अपने उत्पत्ति स्थान Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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