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________________ ३७६ कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) आदि पांच ही रस हैं। इन्ही के संयोग से अन्य रस भी बन जाते हैं। इसलिए रस नामकर्म के ५ भेद हैं, अधिक नहीं। (१२) स्पर्शनामकर्म-जिस कर्म के उदय से शरीर का स्पर्श कोमल, कर्कश, रूक्ष आदि रूप हो, या कोमल आदि स्पर्श प्राप्त हो, उसे स्पर्शनामकर्म कहते हैं। स्पर्श आठ होते हैं-(१) गुरु, (२) लघु, (३) मृदु, (४) कर्कश, (५) शीत, (६) उष्ण, (७) निग्ध और (८) रूक्ष। फलतः स्पर्श नामकर्म भी ८ प्रकार का होता है। जिस कर्म के उदय से जीव का शरीर-स्पर्श लोहे जैसा भारी हो, वह गुरु-स्पर्शनामकर्म है। जिस कर्म के उदय के जीव का शरीर (स्पर्श) आक की रूई जैसा हलका हो, वह लघु-स्पर्श नामकर्म है। जिस कर्म के उदय से जीव का शरीर (स्पर्श) मक्खन-सा मुलायम (कोमल) हो, वह मृदु-स्पर्श-नामकर्म है। जिस कर्म के उदय से जीव का शरीर, (स्पर्श) गाय की जीभ-सा खुरदरा-कर्कश हो, वह कर्कश-स्पर्शनामकर्म है। जिस कर्म के उदय से जीव का शरीर (स्पर्श) बर्फ-सा ठंडा हो, वह शीत-स्पर्श-नामकर्म है। जिस कर्म के उदय से जीव का शरीर (स्पर्श) आग-सा गर्म हो, वह उष्ण-स्पर्शनामकर्म है। जिस कर्म के उदय से जीव का शरीर (स्पर्श) घी के समान चिकना हो, वह स्निग्धस्पर्श नामकर्म है। जिस कर्म के उदय से जीव का शरीर (स्पर्श) बालू या राख के समान रूखा हो, वह रूक्ष-स्पर्श-नामकर्म कहलाता है।' (१३) आनुपूर्वी नामकर्म-जिस कर्म के उदय से विग्रहगति में रहा हुआ जीव आकाश-प्रदेशों की श्रेणी (पंक्ति) के अनुसार गमन करके उत्पत्ति-स्थान (नरकादि गति) में पहुंचता है। उसे आनुपूर्वी नामकर्म कहते हैं। आनुपूर्वी नामकर्म के लिए नासारज्जु का दृष्टान्त दिया जाता है। जैसे-इधर-उधर भटकता हुआ बैल नासारज्जु के द्वारा इष्ट स्थान पर ले जाया जाता है। एक शरीर को यानी इस भव-सम्बन्धी शरीर को छोड़कर दूसरे शरीर को यानी भवान्तरसम्बन्धी शरीर को धारण करने के लिए संसारी जीव जब गमन (गति) करता है, उसे विग्रहगति कहते हैं। विग्रहगति में रहा हुआ जीव जब गति (परलोक यात्रा) करता है, तो आकाश-प्रदेशों की श्रेणी के अनुसार गति करता हुआ उत्पत्ति स्थान पर पहुंचता है। इसमें आनपूर्वी नामकर्म कारण है। जीव जब समश्रेणी से जाने लगता है, तब आनुपूर्वी नामकर्म विश्रेणी में रहे हुए उत्पत्ति स्थान (नरकादि गति) पर पहुँचा देता है। यदि जीव का उत्पत्ति स्थान समश्रेणी में हो तो आनुपूर्वी नामकर्म का उदय नहीं होता। जीव की यह स्वाभाविक गति श्रेणी के अनुसार होती है। जीव की यह (स्थानान्तर सम्बन्धी) गति दो प्रकार की होती है-ऋजु और वक्रा२ १. (क) फासा गुरु-लघु-मिउ-खर-सी-उण्ह-सिणिद्ध-रुक्खऽह । -प्रथम कर्मग्रन्य ४० (ख) कर्मप्रकृति ९२ (ग) सर्वार्थसिद्धि ५/२३ (घ) कर्मप्रकृति से ९४ से ९६ २. (क) कर्म प्रकृति, पृ. ९७/९८ (ख) णिरयाणु-तिरयाणु-णराणु-देवाणुपुव्वित्ति । -कम्मपयडी ९३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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