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________________ ३७२ कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) भेदने वाली हड्डी की कील लगी हुई हो, उसे वज्रऋषभ-नाराच कहते हैं। अतः जिस कर्म के उदय से हड्डियों की ऐसी रचना-विशेष हो, वह वज्रऋषभ-नाराच-संहनन नामकर्म कहलाता है। ऋषभनाराच-संहनन नामकर्म-उसे कहते हैं, जिस कर्म के उदय से हड्डियों की रचना-विशेष में दोनों ओर हड्डियों का मर्कटबन्ध हो, तीसरी हड्डी के वेष्टन भी हो, किन्त तीनों हड्डियों को भेदने वाली कीली न हो। नाराच संहनन-नामकर्म-उसे कहते हैं, जिस कर्म के उदय से हड्डियों की रचना में दोनों ओर मर्कटबन्ध तो हो, लेकिन वेष्टन (पट्टा) और कीली न हो। अर्ध-नाराचसंहनननामकर्म-जिस कर्म के उदय से हड्डियों की रचना में एक ओर मर्कटबन्ध और दूसरी ओर कील हो। कीलिकासंहनन नामकर्म-उसे कहते हैं-जिस कर्म के उदय से हड्डियों की रचना में मर्कटबन्ध और वेष्टन न हो, किन्तु कील से हड्डियाँ जुड़ी हुई . हों। छेवट्ट (सेवात्त), संहनन-नामकर्म-उसे कहते हैं-जिस कर्म के उदय से हड्डियों की रचना में मर्कटबन्ध, वेष्टन और कील न होकर यों ही हड्डियाँ आपस में जुड़ी हुई हों। छेवट्ट का दूसरा नाम छेदवृत्त भी है। अर्थात्-वह संहनन, जिसमें हड्डियाँ पर्यन्तभाग में एक दूसरे का स्पर्श करती हुई रहती हैं, तथा सदा चिकने पदार्थों के प्रयोग एवं तैलादि के मालिश की अपेक्षा रखती हैं, उसे सेवार्त, छेवट्ट या सेवार्तक संहनन कहते हैं। उक्त छह संहननों में से विकलचतुष्क-अर्थात-द्वीन्द्रिय से लेकर असंज्ञी पंचेन्द्रिय तक चार जाति के जीवों में छठा संहनन होता है। एकेन्द्रिय जीवों के संहनन होता ही नहीं है। असंख्यात वर्ष की आयु वाले भोगभूमिज जीवों के प्रथम संहनन होता है। आदि के तीन संहनन उत्तम हैं। उत्तम संहनन वाले मनुष्य ही ध्यान करने में पूर्ण सक्षम होते हैं। अवसर्पिणी काल के चौथे आरे में छहों संहनन वाले, पंचम आरे में अन्तिम तीन संहनन वाले, छठे आरे में अन्तिम एक सेवात संहनन वाले जीव होते हैं। }. (क) संघयणमट्टि निचओ । संहन्यते दृढी क्रियन्ते शरीरपुद्गल येन तत् संहननम् । . -प्रयम कर्मग्रन्थ टीका ३७ (ख) अस्थ्याः निचयः रचना विशेषोऽस्थिनिचयः तत् संहननम् । -वही, टीका ३७ (ग) यस्योदयादस्थि-बन्धविशेषोभवति तत्संहनन-नाम । ___ -कर्मग्रन्थ टीका ३७ (घ) इममुसलगै, इदमस्थिनिचयात्मकं संहननम् औदारिकशरीर एव, नान्येषु शरीरेषु, तेषाम् स्थिरत्वात । -प्रथम कर्मग्रन्थ टीका ३८ (ङ) प्रज्ञापना-२३/२९३ (च) स्थानांग स्थान ६/४/९४ (छ) त छद्धा वज्जरिसहनाराचं तह रिसहनाराचं, नाराचं, अद्धनाराचं, कीलिय-छेवट ।' __ -कर्मग्रन्य १/३६-३८ (ज) गोम्मटसार (क) ५/६/७ में इनके नाम बज्र, नाराच. कीलित और असंप्राप्तासुपाटिक हैं। (झ) इह रिसहोपट्टो य कीलिया वज्ज । उभओ मक्कडबंधो नाराच । इह ऋषभशब्देन परिवेष्टनपट्ट उच्यते, वज्रशब्दे कीलिकाऽभिधीयते, नाराचशब्देनोभयतो मर्कटबन्धो भण्यते। -प्रथम कर्मग्रन्थं टीका ३८ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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