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उत्तर-प्रकृतिबन्ध : प्रकार, स्वरूप और कारण-५ ३७३ सम्पूर्ण विदेह क्षेत्रों, विद्याघरों, म्लेच्छ मानवों, तथा तिर्यंचों एवं नागेन्द्रपर्वत से परवर्ती तिर्यञ्चों में छहों संहनन होते हैं।'
(८) संस्थान-नामकर्म-संस्थान का अर्थ है-(शरीर की) आकृति। मनुष्यादि जीवों में जो शारीरिक विभिन्नताएँ और आकृतियों में, डील-डौल में, शारीरिक ढांचों में जो विविधताएँ दिखती हैं, उनका कारण संस्थाननामकर्म है। अथवा जिस कर्म के उदय से जीव को समचतुरन आदि छह संस्थानों में से किसी एक संस्थान की प्राप्ति होती है, उसे संस्थान नामकर्म कहते हैं। संस्थान नामकर्म के ६ भेद होते हैं-(१) समचतुरन संस्थान नामकर्म, (२) न्यग्रोध-परिमण्डल संस्थान नामकर्म, (३) सादि-संस्थान-नामकर्म, (४) वामन-संस्थान नामकर्म, (५) कुब्जक-संस्थान नामकर्म, और (६) हुण्डक-संस्थाननामकर्म।
इनके लक्षण समचतुरन-संस्थान-नामकर्म में सम का अर्थ है-समान, चतुर् यानी चार, अन का अर्थ है-कोण। पल्हथी (पालखी या पद्मासन) लगा कर बैठने से जिस शरीर के चारों कोण समान हों, अर्थात्-दोनों जानुओं (घुटनों) का, वामस्कन्ध और दक्षिण स्कन्ध का, आसन और कपाल का अन्तर समान हो, या सामुद्रिक शास्त्र के अनुसार जिस शरीर के सम्पूर्ण अवयव. ठीक प्रमाण में तथा शुभ हों, उसे समचतुरन-संस्थान कहते हैं। यह संस्थान जिस कर्म के उदय के जीव को प्राप्त हो, उसे समचतुरन संस्थान-नामकर्म कहते हैं। न्यग्रोध-परिमण्डल संस्थान नामकर्म-न्यग्रोध कहते हैं-वटवृक्ष को, परिमण्डल का अर्थ है-चारों ओर से, सब तरफ से। न्यग्रोध के परिमण्डल के समान जिस शरीर का संस्थान-आकार या ढांचा हो, उसे न्यग्रोध-परिमण्डल संस्थान कहते हैं। अर्थात्-वटवृक्ष की तरह जिस शरीर का ढांचा (संस्थान) नाभि से ऊपर का भाग विस्तृत-पूर्ण मोटा (स्थूल) या उचित प्रमाणोपेत अवयव वाला हो और नाभि से नीचे का भाग हीन (पतले) अवयव वाला हो, उसे न्यग्रोध-परिमण्डल संस्थान कहते हैं। जिस कर्म के उदय से जीव को शरीर की आकृति न्यग्रोध-परिमण्डल के समान प्राप्त हो उसे न्यग्रोध-परिमण्डल-संस्थान-नामकर्म कहते हैं। सादिसंस्थान नामकर्म-सादि का अर्थ है-नाभि के नीचे का भाग। जिस संस्थान में नाभि के नीचे का भाग पूर्ण, मोटा और नाभि के ऊपर का भाग पतला/हीन हो। अर्थात् नाभि के नीचे के अवयव पूर्ण/मोटे और नाभि के ऊपर के अवयव पतले होते जाएँ, वह सादि संस्थान है। कहीं-कहीं सादि संस्थान के बदले साची संस्थान शब्द मिलता है, जिसका अर्थ होता 1. (क) कर्मप्रकृति (विजयजयंतसेनसूरि) से. पृ. ८६, ८७ (ख) विउल-चउक्के छठें पढम तु असंख आउ जीवेसु ।
चउत्थे पंचम छटे कमसो बियं-छत्ति गेवक-संहउणी ॥ सव्वविदेहेसु तहा विज्जाहर-मिलिच्छ-मणुय-तिरिएसु ॥ छस्सहउणा भणिया, णागिद-पईदो य तिरिएसु ॥
-कर्मप्रकृति ८८, ८९
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