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उत्तर-प्रकृतिबन्ध : प्रकार, स्वरूप और कारण-५ ३७१ इनके लक्षण इस प्रकार हैं-जिस कर्म के उदय से औदारिक शरीररूप, परिणत, वैक्रियशरीररूपंपरिणत, आहारकशरीररूप परिणत, तैजसशरीररूप-परिणत और कार्मणशरीररूप परिणत गृहीत एवं गृह्यमाण पुद्गलों का परस्पर सानिध्य हो, अर्थात्-एकत्रित होकर वे स्व-स्वशरीर के पास व्यवस्थापूर्वक जम जाएँ. वे क्रमशः औदारिक शरीर-संघात-नामकर्म, वैक्रियशरीर-संघात नामकर्म, आहारक शरीर-संघातनामकर्म, तैजसशरीर-संघातनामकर्म और कार्मणशरीरसंघात नामकर्म कहलाते हैं।
यद्यपि संघातनामकर्म बन्धन नामकर्म का निकटतम सहयोगी है, तथापि बन्धननामकर्म की तरह अपेक्षा दृष्टि से उसके पन्द्रह भेद न मानकर गृहीत स्व-शरीरपुद्गलों के साथ गृह्यमाण-स्वशरीर-पुद्गलों के संयोगरूप संघातों की शुभरूपता का प्राधान्य बताने हेतु संघातनामकर्म के सिर्फ ५ भेद कहे गए हैं।'
(७) संहनन नामकर्म-जिस कर्म के उदय से वज्रऋषभनाराच आदि संहनन प्राप्त होते हैं, अथवा जिस कर्म के उदय से संहनन, अर्थात् हड्डियों की रचना-विशेष (हड्डियों का परस्पर जुड़ना या हड्डियों की संधियों का शरीर में दृढ़ होना) प्राप्त होती है, उसे संहनन (संघयण) नामकर्म कहते हैं।
औदारिक शरीर के सिवाय वैक्रिय आदि किसी भी शरीर में हड्डियाँ नहीं होती हैं, अतः संहनन नामकर्म का उदय औदारिक शरीर में ही होता है। अर्थात्-मनुष्य और तिर्यचों के औदारिक शरीर होने से, उनमें ही संहनन नामकर्म का उदय पाया जाता है। संहनननामकर्म के ६ भेद होते हैं। वे इस प्रकार हैं
: (१) वज्रऋषभनाराच, (२) ऋषभनाराच, (३) नाराच, (४) अर्धनाराच (५) कीलक और (६) छेवट्ट (सेवात) संहनन।
इनके लक्षण वज्रऋषभनाराच-वज्र+ऋषभ+नाराच, इन तीन शब्दों के योग से निष्पन्न है। वज्र का अर्थ हैं-कीली, ऋषभ का अर्थ है-वेष्टन/पट्टी और नाराच का अर्थ है-दोनों ओर मर्कटबन्ध। इसका फलितार्थ हुआ-जिस संहनन में दोनों ओर से मर्कटबन्ध से बंधी हुई दो हड्डियों पर तीसरी हड्डी का वेष्टन-पट्टा हो, और इन तीनों हड्डियों को १. (क) बंधन-नाम असंहतानां पुद्गलानां न संभवति, अतोऽन्योऽन्य-सन्निधान-लक्षण-पुद्गलसंहतेः कारणं संघातममाह ।
-प्रथम कर्मग्रन्य ३६ (ख) ज संघायइ उरलाई-पुग्गले, तणगणं व दंताली। तं संघायं ॥ -वही, ३६ गा. (ग) पंचसंघादणाम ओदालिय तह य जाण वेउव्वं । आहार-तेज-कम्मसरीर संघाद-णाममिति ॥
-कर्मप्रकृति ६७ (घ) बंधणमिव तणुनामेण पंचविहं । । ।
-प्रथम कर्मग्रन्थ ३६ (ड) एवमिहापि स्वशरीर-पुद्गलाना स्वशरीर-पुद्गलान् सह ये संयोगरूपाः संघाताः शुभा इति
प्राधान्य-ख्यापनाय पंचैव संघाता अभिहिता इति । -प्रथम कर्मग्रन्य टीका ३६
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