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________________ (३८) मरण का मूल माना है। पुद्गल द्रव्य की अनेक जातियां हैं, इन्हें वर्गणाएं कहते हैं। कर्म वर्गणा ही कर्म द्रव्य है और यह सूक्ष्मातिसूक्ष्म रूप में सर्वत्र व्याप्त है। जीव के साथ बद्ध होकर, वह कर्म कहलाता है। आगम के अनुसार शरीर पांच प्रकार के हैंऔदारिक, वैक्रिय, आहारक, तैजस और कार्मण। इसमें आठ प्रकार के कर्मों का समूह ही कार्मण शरीर है। तैजस और कार्मण शरीर की गति अप्रतिहत होती है "तेयग सरीरा पदेसट्ठाए अणंत गुणा, कम्मग सरीरा पदेसट्ठयाए अमंत गुणा।" इन दोनों का आत्मा के साथ अनादि संबंध है। कार्मण शरीर सूक्ष्मातिसूक्ष्म है। कर्म शरीर से ही पुद्गल चिपकते हैं। यह वस्तुतः तैजस और स्थूल शरीर का सेतु है। ___ जैन धर्म का कर्मवाद आत्मवाद पर स्थित है। संभवतः विश्व के किसी भी धर्म अथवा दर्शन में कर्म का इतना गम्भीर व व्यापक विवेचन नहीं मिलता, जितना जैन धर्म में। अध्यात्म साधना के सोपान कर्म के आम्रव, संवर और निर्जरा पर आधृत हैं। गुणस्थानों का विकास क्रम इसका एक पक्ष है। कर्म बंध और कर्म फल के अनिवार्य सम्बन्ध का निदर्शन जैन कर्मवाद का सैद्धान्तिक और व्यावहारिक पक्ष है। इस पुरोवाक् में हम केवल इस पर एक विहंगम दृष्टि ही डाल सकेंगे। आचार्य देवेन्द्र मुनि ने कर्म विज्ञान का कोई पक्ष अछूता नहीं रखा। व्यावहारिक दृष्टि से जैन कर्म सिद्धान्त मनुष्य के कर्तव्यबोध, नैतिक मूल्य, आचार-विचार की श्रेष्ठता के साथ पुरुषार्थ पर आधृत है। जो व्यक्ति राग, द्वेष, मोह, मान, परिग्रह, हिंसा, मिथ्यात्व, स्वार्थ को छोड़कर संयम, स्वाध्याय और सामायिक का दरण करता है, वही अपने पुरुषार्थ से कर्म बंधनों से मुक्त हो सकता है। जिस प्रकार व्यास ने कहा कि अष्टादश पुराणेषु व्यासस्य वचन द्वयं । परोपकार पुण्याय पापाय पर-पीड़नम् ॥ उसी प्रकार हम जैन जीवन दर्शन के लिए कह सकते हैं जमिणं जगई पुढो जगा कम्मेहि लुप्पन्ति पाणिणो । सयमेव कडेहिं गाहई, नो तस्स मुच्चज्जऽपु द्वयं ॥ ___ -सूत्रकृतांग १.२.१९४ विश्व के समस्त प्राणी अपने-अपने कर्मों के कारण ही दुःखी हैं। उन्होंने जो भी कर्म किए हैं, जिन संस्कारों की छाप इन पर पड़ी है, उनका फल भोगे बिना या अनुभव किए बिना उनका छुटकारा नहीं। जैन कर्म विज्ञान का यही "आर्य सत्य" है। आचारांग-सूत्र (१.३.१) यही बताता है "कम्मुणा उवाहि जायई" कर्म के कारण ही जीव की नाना उपाधियाँ हैं। महावीर ने कहा “अकर्म कहीं नहीं है। संसारी जीवों में कर्म बीज की भिन्नता से ही उनके भोग होते हैं, स्थितियों में अन्तर है। आचार्य देवेन्द्र सूरि ने “कर्म ग्रन्थ" में इसे अधिक स्पष्ट किया है। मनुष्य की इस भिन्नता का प्रमाण उसका कर्मबंध अथवा कर्मफल है। पंचाध्यायी भी इसी की पुष्टि करता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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