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________________ (३७) कर्म तत्व को लेकर अत्यन्त प्राचीन काल से जैन मनीषी, आचार्य व दार्शनिक विचार करते आए हैं और आज भी उस पर निरन्तर नए-नए अनुसंधान हो रहे हैं। दिगमबर साहित्य के परिप्रेक्ष्य में षट्खण्डागम (गुणस्थान का पूर्ण विकसित रूप) एवं नियुक्तियों में श्वेताम्बर साहित्य के संदर्भ में प्रचुर विचार किया गया है। उमास्वाति का “तत्वार्थ सूत्र" प्रसिद्ध है। जैन आगमों में आचारांग, स्थानांग, भगवती, विपाक सूत्र आदि में कर्म सम्बन्धी प्रचुर वर्णन उपलब्ध है। श्रीमद देवेन्द्र सूरि का “कर्म ग्रन्थ" (भाग १-६) कर्म विषयक अध्ययन का प्रमुख आकर्षण रहा है। शिवराम सूरि का “कर्म प्रकृति" एक सर्वमान्य ग्रन्थ है। इनके अतिरिक्त अनेक ग्रन्थों में कर्म सिद्धान्त का विपुल विवरण और अध्ययन प्राप्त है। आधुनिक युग में युवाचार्य महाप्रज्ञ का “कर्मवाद", डॉ. नरेन्द्र भानावत द्वारा संपादित “जिनवाणी का कर्म सिद्धांत विशेषांक", स्व. मधुकर मुनि जी का “कर्म सिद्धान्त," डॉ. सागर मल जैन का “कर्म सिद्धान्त का तुलनात्मक अध्ययन," क्षुल्लक जिनेन्द्र वर्णी का “कर्म सिद्धांत" और अब आचार्यश्री देवेन्द्र मुनि द्वारा रचित यह बृहत् “कर्म विज्ञान" (पांच खण्ड) इस ओर महत्वपूर्ण व युग प्रवर्तक कृतियाँ हैं। आचार्य देवेन्द्र मुनि ने कर्म सिद्धान्त, विज्ञान, तत्व व वाद का सर्वांगीण विवेचन किया है, जिसका एक सूत्र प्राचीन ग्रन्थों की परम्परा से जुड़ा है और दूसरा सूत्र आधुनिक समाजशास्त्रीय, वैज्ञानिक और दार्शनिक चिन्तन धारा से। जैन धर्म आत्मवादी, लोकवादी, कर्मवादी और क्रियावादी धर्म है, “से आयावादी, लोगावादी, कम्मावादी किरियावादी" (आचारांग १-३)। कर्म का लक्षण है, “कीरइ जिएण्होउहिं" जो जीव के द्वारा किया जाय, वही कर्म है। क्रिया का कर्म स्वतः होता है पर विशिष्ट कर्म स्वतः नहीं। "जेणं तो मण्णाई कम्म" (आचार्य देवेन्द्र सरि) पुदगल वर्गणा के संग्रह का नाम कर्म है। रागद्वेष ही कर्म के बीज हैं, “रागो व दोसो वि य कम्म वीर्य।" कर्म का सामान्य लक्षण है “कर्म शब्दस्य कर्मादिषु साधनेषु संभवत्सु इच्छा तो विशेषोऽध्यवसेय। वीर्यान्तराय, ज्ञानावरण क्षय क्षयोपशम मापेक्षण आत्मानात्म परिणामः पुद्गलेन च स्वपरिणामः व्यत्ययेन च निश्चय व्यवहारनयापेक्षया क्रियत इति कर्मः" (राजवार्तिक ६-१७-५०४-२६)। कर्म शब्द कर्ता, कर्म और भाव तीनों में निष्पन्न होता है और विवक्षानुसार तीनों कर्मानव के प्रकाश में गृहीत हैं। वीर्यान्तराय और ज्ञानावरण के क्षयोपशम की अपेक्षा रखने वाले आत्मा के द्वारा निश्चय नय से आत्म परिणाम और पुद्गल के द्वारा आत्म परिणाम भी जो किए जाएँ-वे कर्म हैं (जैनेन्द्र सिद्धान्त कोशभाग-२ पृष्ठ २७)। वैशेषिक दर्शन और जैन दर्शन की परिभाषा में अन्तर यह है कि वैशेषिक परिणमन स्वरूप भावात्मक पर्याय को कर्म न कहकर, क्रियात्मक पर्याय को ही कर्म कहता है। जैन दर्शन दोनों प्रकार के पर्यायों को कर्म कहता है। (वही) आचार्य देवेन्द्र मुनि ने भगवान महावीर के अनुसार “कम्मं च मोहप्पभवं वयन्ति" कहकर कर्म को मोह से उत्पन्न बताया है और उसे कम्मं च जाई मरणस्स मूलं-जन्म Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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