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________________ उत्तर- प्रकृतिबन्ध : प्रकार, स्वरूप और कारण - ४ ३५५ नामकर्म की बयालीस उत्तरप्रकृतियाँ: क्यों और कैसे ? कर्मप्रकृति में सर्वप्रथम नामकर्म की ४२ उत्तरप्रकृतियाँ को दो वर्गों में विभाजित किया गया है- पिण्ड-प्रकृतियाँ और अपिण्ड - प्रकृतियाँ। जिन प्रकृतियों के अवान्तर भेद होते हैं, उन्हें पिण्ड-प्रकृतियाँ कहते हैं। पिण्ड अर्थात् समूह। जिनमें दो तीन या अधिक प्रकृतियों का समूह साथ में हों, वे पिण्ड प्रकृतियाँ कहलाती हैं। अपिण्ड-प्रकृतियों को तीन भागों में विभक्त किया गया है - ( 9 ) प्रत्येक प्रकृतिवर्ग, (२) स्थावरदशकवर्ग, और (३) त्रसदशकवर्ग। जिन प्रकृतियों के अवान्तर भेद नहीं होते, उन्हें प्रत्येक प्रकृतियाँ कहते हैं । स जीवों में ही पाई जाने वाली, जो प्रकृतियाँ संख्या में दस होती हैं, वे त्रसदशक और स्थावर जीवों में ही पाई जाने वाली दस प्रकृतियाँ स्थावरदशक कहलाती हैं। ' पिण्ड-प्रत्येक त्रस-स्थावरदशक प्रकृतियाँ मिल कर बयालीस पिण्डप्रकृतियों में गृहीत प्रकृतियाँ चौदह हैं - (१) गति, (२) जाति, (३) शरीर, (४) अंगोपांग, (५) बन्धन, (६) संघातन, (७) संहनन, (८) संस्थान, (९) वर्ण, (१०) गन्ध, (११) रस, (१२) स्पर्श, (१३) आनुपूर्वी और (१४) विहायोगति । प्रत्येक प्रकृतियाँ आठ हैं- ( १ ) पराघात, (२) उच्छ्वास, (३) आतप, (४) उद्योत, (५) अगुरुलघु, (६) तीर्थंकर, (७) निर्माण और (८) आघात । त्रसदशक इस प्रकार हैं- (१) त्रस, (२) बादर, (३) पर्याप्त, (४) प्रत्येक, (५) स्थिर, (६) शुभ, (७) सुभग, (८) सुस्वर, (९) आदेय और (90) यश कीर्ति। इसी प्रकार स्थावर-दशक इस प्रकार हैं - (१) स्थावर, (२) सूक्ष्म, (३) अपर्याप्तक, (४) साधारण, ·(५) अस्थिर, (६) अशुभ, (७) दुर्भग, (८) दुःस्वर, (९) अनादेय और (१०) अयशःकीर्ति । इस अपेक्षा से नामकर्म के संक्षेप में १४ + ८ + १० + १० उत्तरप्रकृतियाँ होती हैं। ४ १. (क) णायं बायालीस पिंडापिंडभेएण । (ख) कर्मप्रकृति से, पृ. ५३ २. समवायांग, समवाय ४२ ३. प्रज्ञापना पद २३, उ. २, सू. २९३ ४. (क) ज्ञान का अमृत से, पृ. ३१५ (ख) गइ-जाइ-तणु-उवंगा बंधण संघायणाणि संघयणा । संठाण-वण्ण-गंध-रस-फास - अणुपुव्वि-विहगई ॥ २४ ॥ पिंड-पयडित्ति चउद्दस । परघाउस्सास- आयव्वुज्जोय । अगुरुलहु-तित्थ-निमिणोवघायमिय अट्ठ पत्तया || २५ | तस - बायर - पज्जत्तं पत्तेय थिरं सुभं च सुभगं च । सुस्सराइज्ज-जसं तस-दसगं, थावरदसगं तु इमे ॥ २६॥ थावर-सुहुम-अपज्जे साहारण अत्थिर - असुभ - दुभगाणि । दुसराSSणाइज्जजमिय नामे सेयरा बीसं ॥ २७ ॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only = ૪૨૩ -कम्पपयडी ६६ - प्रथम कर्मग्रन्थ www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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