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________________ ३५६ कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) चौदह पिण्ड प्रकृतियों के पैंसठ भेद ___ पूर्वोक्त १४ पिण्ड-प्रकृतियों के भेद पैंसठ होते हैं। जैसे-गतिनाम कर्म के ५ भेद, जातिनामकर्म के ५ भेद, शरीरनामकर्म के ५ भेद, अंगोपांगनामकर्म के ३ भेद, संघातनामकर्म के ५ भेद, संहनननामकर्म के ६ भेद, संस्थाननामकर्म के ६ भेद, वर्णनामकर्म के ५ भेद, रसनामकर्म के ५ भेद, गन्धनामकर्म के २ भेद, स्पर्शनामकर्म के ८ भेद, आनुपूर्वीनामकर्म के ४ भेद, विहायोगतिनामकर्म के २ भेद, ये कुल मिला कर ६५ भेद पिण्डप्रकृतियों के हुए। नामकर्म की तिरानवे और एक सौ तीन प्रकृतियाँ : कैसे कैसे ? इन १४ पिण्डप्रकृतियों के ६५ भेदों के अतिरिक्त, प्रत्येक प्रकृतियों के ८, स्थावरदशक के १०, सदशक के १० ये २८ भेद मिलने से ६५ + २८ = ९३ भेद नामकर्म की उत्तरप्रकृतियों के होते हैं। किन्तु बन्धननामकर्म के मूल पांच भेदों के संयोजन अंग १५ भी बनते हैं। पांच स्थानों में १५ भेदों की अपेक्षा पिण्ड प्रकृतियों की संख्या ७५ हो जाती है जिनको २८ अपिण्डप्रकृतियों के साथ जोड़ने पर २८ + ७५ = १०३ संख्या नामकर्म की उत्तरप्रकृतियों की हो जाती है। साक्षेपिक दृष्टि से नामकर्म की सड़सठ प्रकृतियाँ इसके अतिरिक्त नामकर्म के सांक्षेपिक दृष्टि की अपेक्षा से ६७ भेद भी माने गये हैं। इनमें आपेक्षिक विशेषता यह है कि ८ प्रत्येक, १० त्रसदशक और १० स्थावरदशक, इन २८ अपिण्डप्रकृतियों के साथ १४ पिण्डप्रकृतियों में से बन्धननामकर्म के मूल पांच तथा संघात नामकर्म के पांच अवान्तर भेदों को अभेद विवक्षा से शरीर नामकर्म के ५ भेदों में गर्भित कर लिया जाता है, क्योंकि बन्धन और संघातनाम कर्म अपने-अपने नाम वाले शरीरनामकर्म के साथ हैं। इन दोनों भेदों का अपने-अपने शरीर-भेदों के साथ अविनाभावी सम्बन्ध है, यानी ये दोनों शरीर के बिना नहीं हो सकते। इसी कारण ५ बन्धन और ५ संघात, ये १० प्रकृतियाँ अभेद विवक्षा से शरीर नामकर्म के भेदों से पृथक नहीं गिनी जाती। इसी प्रकार वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श इन चार पिण्ड प्रकृतियों के क्रमशः ५, २, ५ और ८; यों कुल २० भेदों में से एक समय में एक ही प्रकृति का बन्ध व उदय होने से बन्ध और उदय अवस्था में अभेद विवक्षा से उन-उनकी मूल पिण्ड प्रकृतियों में समाविष्ट करके मूल चार भेद ही लिये जाते हैं। अतः बन्धन और संघात नामकर्म के ५-५ भेदों को कम करने के साथ वर्णचतुष्क के बीस भेदों के स्थान पर कुल चार भेदों तथा शेष रही र पिण्डप्रकृतियों के ३५ भेदों के साथ, अपिण्ड प्रकृतियों के २८ भेदों को ग्रहण करने से (४ + ३५ + २८ = ६७) कुल ६७ भेद नामकर्म के होते हैं।१।। __नाम, गोत्र और अन्तरायकर्म की उत्तरप्रकृतियों के स्वरूप आदि का विश्लेषण अगले लेख में देखिये। १. (क) कर्मप्रकृति से, पृ. ५२, ५३ (ग्नु) जनदृष्टिए कर्म मे, पृ. १३५ (ग) ज्ञान का अमृत मे, पृष्ट ३१५-३१६ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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