SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 402
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३५४ कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) अशुभनामकर्म की ३४ प्रकृतियाँ अशुभ नामकर्म की ३४ प्रकृतियाँ मानी जाती हैं-(१) गति नामकर्म के दो भेदनरक और तिर्यञ्च। (२) जाति नामकर्म के ४ भेद-एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय। (३) संहनन (संघयण) नामकर्म के केवल वज्रऋषभनाराच संहनन को छोड़कर शेष रहे ५ भेद; (४) संस्थान नामकर्म के समचतुरम्न संस्थान को छोड़कर शेष ५ भेद; (५) वर्णनामकर्म का अशुभवर्ण नामक एक भेद (६) गन्धनामकर्म का अशुभ गन्ध नामक एक भेद, (७) रसनामकर्म का एक भेद-अशुभ रस; (८) स्पर्शनामकर्म का अशुभ स्पर्श नामक एक भेद, (९) आनुपूर्वीनामकर्म के दो भेदनरकानुपूर्वी और तिर्यञ्चानुपूर्वी; (१०) अशुभविहायोगतिनामकर्म का एक भेदअशुभविहायोगति-अशुभ चाल; (११) उपघात नामकर्म का एक भेद-उपघात, (१२) स्थावरदशक के १0 भेद, ये सब मिलाकर ३४ भेद हुए। शुभनामकर्म के ३७ और अशुभनामकर्म के ३४, ये सब मिलाकर ७१ भेद बनते हैं। लेकिन बन्धन नामकर्म के ५ भेद, संघातनामकर्म के ५ भेद, वर्णनामकर्म के ५ भेद, गन्धनामकर्म के दो भेद, रसनामकर्म के ५ भेद और स्पर्शनामकर्म के ८ भेद, इन ३० भेदों में से वर्णादि नाम कर्मों के आठ भेद (चार शुभ और चार अशुभ) निकाल देने पर २२ भेद शेष रह जाते हैं। पहले के शुभ-अशुभ नामकर्म के ३७ + ३४ = ७१ भेदों में ये २२ भेद मिल जाने से इनकी कुल प्रकृतियों की संख्या ९३ हो जाती है।' नामकर्म की उत्तर प्रकृतियों की संख्या में अन्तर क्यों ? नामकर्म की किसी अपेक्षा से ४२ उत्तर प्रकृतियाँ, किसी अपेक्षा से ६७, किसी अपेक्षा से ९३ और किसी अपेक्षा से १०३ प्रकृतियाँ हैं। नामकर्म के सिवाय ज्ञानावरण आदि शेष मूल कर्मों की उत्तर प्रकृतियों की गणना में जिनकी जितनी संख्या का निर्देश किया गया है, तदनुसार उतने ही उनके नामों का निर्देश है, लेकिन अपेक्षाभेद से उनके असंख्य भेद हो सकते हैं। इसी प्रकार शास्त्रों में नामकर्म की असंख्यात लोक प्रकृतियाँ होने पर भी उत्तरप्रकृतियों की संख्या संक्षेप व विस्तार की दृष्टि से बयालीस, सड़सठ, तिरानवे और एकसौतीन बताई गई हैं। लेकिन इन संख्याओं में नामकर्म की मानी गई प्रकृतियों में न तो किसी प्रकृति को. छोड़ा गया है, न ही अधिकता के लिए किसी नई प्रकृति का समावेश किया गया है। इस संख्या भिन्नता के कारण का उल्लेख आगे हम यथास्थान करेंगे।२ १. (क) ज्ञान का अमृत, पृ. ३३३-३३४ (ख) शुभ और अशुभ नामकर्म की प्रकृतियों के लक्षण आगे के पृष्ठों में देखें। २. (क) कर्मप्रकृति (आचार्य जयन्तसेनसूरीजी) से, पृ. ५२ (ख) बायाल-तिनवइविहं तिउत्तरसयं च सत्तट्ठी । -कर्मग्रन्थ भा. १,गा.२३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy