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________________ उत्तर - प्रकृतिबन्ध : प्रकार, स्वरूप और कारण -४ ३५३ मायावाद के शैतान के चंगुल में फंसकर मानवजीवन रूपी अनमोल धन को बर्बाद नहीं करना चाहिए। जो सत्-प्रतिज्ञा जिस रूप में कर रखी है, उसका उसी रूप में पालन करना चाहिए। दो स्नेहियों के बीच में वैरभाव और आपसी वैमनस्य की गंदी धारा प्रवाहित नहीं करनी चाहिए। हो सके तो फटे दिलों को जोड़ने और सीने का प्रयत्न करना चाहिए किन्तु मिले दिलों को फाड़ने तथा संघ में, परिवार में या राष्ट्र में फूट डालने का कार्य तो हर्गिज नहीं करना चाहिए। किसी को वचन देकर विश्वासघात नहीं करना चाहिए क्योंकि ऐसा करने से वह निराशा के गहरे गर्त में गिर सकता है। सदैव हित मित और प्रिय सत्य कहना और आचरण करना चाहिए। किसी की उन्नति को देखकर कुढ़ना, ईर्ष्या करना, जलना और द्वेष नहीं करना चाहिए। ये बातें मनुष्य को अशुभनामकर्म में धकेल कर उसके भविष्य को अन्धकारमय बना डालती हैं। ये अशुभ पगडंडियाँ जीवन को जान-बूझकर दुःखी बनाने वाली हैं। इसके विपरीत जो व्यक्ति इन पापकारी पगडंडियों को छोड़कर निष्कपटता - सरलता की - धर्म की पगडंडी पर सच्चे हृदय से चलता है, वह कर्म के मूल कारण रूपों कषायों या रागद्वेषों से छुटकारा पाकर, संसार के बन्धनों को शीघ्र ही तोड़कर परमधाम - मोक्ष में जा विराजता है, तथैव संसार की समस्त असुविधाओं से छुटकारा होकर परम सुखरूप बनने में सफल हो जाता है। ' शुभनामकर्म की ३७ प्रकृतियाँ नामकर्म के शुभ और अशुभ दो भेद बताकर कर्मशास्त्रियों ने इनकी प्रकृतियों का पृथक-पृथक वर्गीकरण किया है। शुभ नाम की ३७ प्रकृतियाँ बताई गई हैं। यथा-( -(9) गतिनामकर्म के दो भेद - मनुष्यगति और देवगति, (२) जातिनामकर्म का संज्ञी पंचेन्द्रिय का एक भेद, (३) शरीरनामकर्म के ५ भेद-औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तैजस और कार्मणशरीर; (४) अंगोपांग नामकर्म के तीन भेद-औदारिक अंगोपांग, वैक्रिय अंगोपांग, आहारक शरीर अंगोपांग, (५) संहनन नामकर्म का एक भेदवज्रऋषभनाराच संहनन; (६) संस्थान नामकर्म का एक भेद - समचतुरस्र संस्थान, (७) वर्णनामकर्म का एक भेद - शुभवर्णनामकर्म, (८) रसनामकर्म का एक भेद - शुभ रसनामकर्म, (९) गन्धनामकर्म का एक भेद-सुरभिगन्ध, (१०) स्पर्शनामकर्म का एक भेद - शुभस्पर्श, (99) आनुपूर्वी नामकर्म के दो भेद - देवानुपूर्वी और मनुष्यानुपूर्वी, (१२) विहायोगति नामकर्म का एक भेद - शुभविहायोगति ( अच्छी चाल), (१३) प्रत्येक नामकर्म की ७ प्रकृतियाँ - पराघात, उच्छ्वास, आतप, उद्योत, अगुरुलघु, निर्माण, और तीर्थकर नामकर्म; (१४) त्रसदशक की १० प्रकृतियाँ - ये सब मिलकर ३७ प्रकृतियाँ होती हैं। २ १. ज्ञान का अमृत से भावांशग्रहण, पृ. ३३८ २. ज्ञान का अमृत से, पृ. ३३३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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