________________
उत्तर-प्रकृतिबन्ध : प्रकार, स्वरूप और कारण-४ ३५१ बहुमान करना। (१४) आवश्यकापरिहाणि-सामायिक आदि छह आवश्यकों के अनुष्ठान को भाव से नहीं छोड़ना, (१५) मोक्षमार्ग-प्रभावना-निरभिमानतापूर्वक ज्ञानादि मोक्षमार्ग की स्वयं साधना करना तथा दूसरों को उपदेशादि देकर उसका प्रभाव बढ़ाना, और (१६) प्रवचन-वात्सल्य-जैसे गाय बछड़े पर वात्सल्य (स्नेह) रखती है, वैसे ही प्रवचन और प्रवचनानुगामी साधर्मिकों पर निष्काम वात्सल्य (स्नेह) रखना।
अशुभनामकर्म के बन्ध के कारण नामकर्म का दूसरा भेद अशुभनामकर्म है। अशुभ नामकर्म के बन्ध के भी चार कारण हैं-(१) काया की वक्रता (शारीरिक प्रवृत्तियों से धोखा देना), (२) भाषा की वक्रता, (छलपूर्ण भाषा का प्रयोग करना), (३) भावों की वक्रता-(कपटपूर्ण भाव बनाये रखना) और (४) विसंवादन-योग (प्रतिज्ञा भंग कर देना या असत्यमयी प्रवृत्ति करना)। तात्पर्य यह है कि मन-वचन-काया द्वारा मायावी बनने से तथा प्रणभंग करने से अशुभनामकर्म का बन्ध होता है। तत्त्वार्थसूत्र में अशुभ नामकर्म के आमव बन्ध के जो दो कारण-'योगवक्रता और विसंवादन' बताये हैं, उनमें इन चारों का समावेश हो जाता है। इन चारों तथा दोनों का विश्लेषण शुभनामकर्मबन्ध के कारणों की व्याख्या में स्पष्ट कर दिया गया है। इसके अतिरिक्त शुभ-अशुभ नामकर्म का फल कैसे भोगा जाता है ? इस विषय में भी हम 'मूल प्रकृतिबन्ध : स्वभाव, स्वरूप और कारण' लेख में प्रतिपादित कर चुके हैं।
. अशुभनामकर्मबन्ध के कारणों से चार बातों की प्रेरणा .. अशुभ नामकर्म के बन्धकारणों को देखते हुए चार बातों को जीवन का अंग • बनाने की प्रेरणा प्राप्त होती है-(१) हृदय में कपट न रखकर अन्दर और बाहर एक-सा रहना चाहिए। जो लोग बकभक्त बन कर दूसरों के साथ वंचना करते हैं; दम्भ और दिखावा करते हैं, वे अशुभनामकर्म के दलदल में फँस जाते हैं। (२) व्यक्ति को ज़बान से जो कुछ कहना हो, वह इतना स्पष्ट और साफ सुथरा होना चाहिए कि सुनने वाला उसे आसानी से समझ सके, किसी प्रकार के धोखे या मुगालते में, या गलतफहमी में न रहे। जिसके दो या अधिक मतलब निकलें, ऐसे द्यर्थक शब्दों का प्रयोग करके दूसरे को धोखे में रखने से अशुभनामकर्म के बन्धन की बेड़ियों में जकड़ना पड़ता है। (३) हाथ, पैर, आँख, कान, जीभ, नाक आदि जितने भी शारीरिक अवयव हैं, उनसे किसी को धोखा नहीं देना चाहिए। ___एक ग्वाले की गाय हृष्ट-पुष्ट थी, मगर दूध बिलकुल नहीं देती थी। एक भगतजी के पास जाकर उसने बहुत अनुनय विनय किया तो उन्होंने कहा-'कोई ग्राहक आए १. (क) ज्ञान का अमृत से, पृ. ३३७
(ख) तत्त्वार्थसूत्र ६/२१
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org