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________________ उत्तर-प्रकृतिबन्ध : प्रकार, स्वरूप और कारण-४ ३४१ चार कारण बतलाए हैं-(१) माया (कपट) करना, (२) गूढ़ माया (रहस्यपूर्ण कपट) करना; अथवा छल को छल द्वारा छिपाना, (३) असत्य भाषण और (४) झूठा (न्यूनाधिक) तौल-माप करना। अथवा झूठे तौल, और झूठे माप रखना, (खरीदने के बाँट और नापने के गज और रखना तथा बेचने के बाँट व मापने के गज दूसरे रखना)। व्यावहारिक जीवन में तो छल-कपट बुरा और विश्वासघातक है ही, धार्मिक जगत् में तो और भी बुरा है। जो लोग धर्म के नाम पर पाखण्ड फैलाते, दम्भ-दिखावा करते हैं, भोले-भाले लोगों को ठगते हैं, उसके कटु परिणाम इस जन्म में ही नहीं, अगले जन्म में भी भोगने पड़ते हैं। सूत्रकृतांगसत्र में स्पष्ट कहा है-जो मायापूर्वक आचरण करता है, वह अनन्त बार गर्भ में आता (जन्म-मरण करता) है।' मायाशल्य : कपटपूर्वक प्रायश्चित्त तिर्यञ्चायुबन्ध का कारण मन में कामवासना आदि किसी प्रकार का शल्य रखकर उस पाप को छिपाना, आलोचना करने के समय उस पाप को छिपा कर प्रायश्चित्त करना, इस प्रकार के माया शल्य के कारण भी तिर्यञ्च आयुष्य बंध जाता है। शिवभूति और वसुभूति दोनों भाई थे। बड़े भाई शिवभूति की पत्नी कमलश्री अपने देवर वसुभूति के प्रति मोहित हो गई। एक बार उसने वसुभूति के समक्ष कामचेष्टा करके अनुचित प्रार्थना की। भाभी की कामवासना देखकर वसुभूति को संसार से विरक्ति हो गई। उसने गुरुचरणों में जाकर संयम अंगीकार कर लिया। इन समाचारों से कमलश्री मन ही मन कामपीड़ित रहने और आर्तध्यान करने लगी। देवर के प्रति प्रच्छन्न काम वासना की मानसिक-वाचिक आलोचना न करने के कारण कमलश्री ने तिर्यञ्च आयुरूप कर्म बाँधा और मर कर कुतिया बनी।२ । ___ एक बार उसी गाँव में वसुभूति मुनि पधारे, भिक्षाचरी के लिए जा रहे थे कि कुतिया बनी हुई कमलश्री मुनि को देख पूर्वभवजन्य कामराग के संस्कारों के वश मुनिश्री के साथ-साथ चलने लगी। यह देख जनता मुनिश्री को शुनीपति (कुतिया के पति) कहने लगे। मुनि ने जब यह रवैया देखा तो एक दिन वे नजर बचाकर अन्यत्र चले गये। कुतिया ने मुनिश्री को नहीं देखा तो उनके विरह में पीड़ित होकर आर्तध्यानवश मरकर वानरी बनी। एक दिन मुनिश्री को देखा तो वह उनके पीछे-पीछे चलने लगी और कामचेष्टाएँ करने लगी। अब लोग मुनिश्री को वानरीपति कहने लगे। मुनिश्री ने १. (क) माया तैर्यग्योनस्य । -तत्त्वार्थसूत्र ६/१७ पर विवेचन (उपाध्याय केवलमुनि), पृ. २८० (ख) चउहि ठाणेहिं जीवा तिरिक्ख-जोणियत्ताए कम पगरेंति, तं.-माइल्लताते, नियडिल्लाते, ... अलियवयणेणं, कूडतुल्ल-कूड-माणेणं । -सूत्रकृतांग ठा. ४, उ. ४, सू. ३७३ (ग) जे इह मायाइ मिज्जाति आगंता गब्भायऽणतसो। -सूत्रकृतांग श्रु. २, उ. १, सू. ९ २. रे कर्म ! तेरी गति न्यारी से, पृ. १४३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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