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________________ ३४० कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) ममता मूभिाव की तीव्रता सूचित की गई है। विशाल धन-सम्पत्ति होने मात्र से कोई महापरिग्रही या बहु-परिग्रही नहीं हो जाता; आनन्द, कामदेव आदि श्रमणोपासकों के पास १२ क्रोड़ सोनैया आदि की सम्पत्ति थी, किन्तु उस पर उनकी तीव्र ममता मूर्छा नहीं थी। भरत चक्रवर्ती के पास चक्रवर्ती का साम्राज्य तथा विशाल वैभव था, किन्तु . वे महापरिग्रही या बहु-परिग्रही नहीं थे, क्योंकि वे उसके प्रति अनासक्त, व निर्लेप रहते थे। इसलिए परिग्रह के प्रति तीव्र आसक्ति तीव्र मूर्छा-ममता होने से प्राणी बहु (महा) परिग्रही होता है। नरकायु बन्ध का तीसरा कारण है-मनुष्य, पशु-पक्षी आदि तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय का प्रमत्तयोगपूर्वक आकुट्टि की बुद्धि से वध करना। जो लोग दहेज लोलुपतावश, देवी-देवों को बलि देने हेतु तथा तस्करी-डकैती करने हेतु तथा शिकार करने या कसाईखाना (कत्लखाना) चलाने हेतु या आतंकवाद से प्रेरित होकर अथवा क्रूरतापूर्वक द्वेषवश मारण, उच्चाटन आदि अनिष्ट मंत्र प्रयोग करना, शाप देना आदि से निर्दोष मनुष्यों, पशुओं, पक्षियों, मछलियों आदि पंचेन्द्रिय प्राणियों का वध करते हैं। वे भी नारकीय जीवन प्राप्त करते हैं। नरकायु कर्मबन्ध का चौथा कारण है.-मांसाहार यानी मांस, मछली, अंडों आदि का सेवन करना-कराना। गर्भपात आदि से पंचेन्द्रिय हत्या भी इसका कारण है।' पंचेन्द्रिय हत्या का रौद्र परिणाम भी तृतीय कारण में समाविष्ट हो जाता है। जैसे-कंडरीक ने एक हजार वर्ष तक चारित्र-पालन किया, परन्तु भोगों के प्रति अत्यासक्तिवश उसने साधु जीवन को त्याग कर गृहस्थ जीवन अंगीकार किया। राज्यसत्ता-प्राप्ति के मद में आकर रसलोलुपतावश स्वादिष्ट गरिष्ट पदार्थों का अत्यासक्तिपूर्वक सेवन किया। किन्तु कण्डरीक नृप की इस प्रकार की अहंकारी, तीव्र रसलोलुपता आदि देखकर राज्याधिकारियों व राज्य कर्मचारियों ने उनकी सेवा से मुख मोड़ लिया। उनके द्वारा अपनी घोर उपेक्षा देख, कण्डरीक के मन में भयंकर रौद्र परिणाम आया। सत्ता के भद में आकर वह बोला-'यदि मैं कल ठीक हो गया तो एक-एक का मस्तक धड़ से अलग कर दूंगा।' इस प्रकार के तीव्र क्रूर हिंसक परिणामों के कारण मर कर सप्तम नरक का आयुष्यबन्ध करके सातवीं नरक में गया।२ तिर्यञ्चायुकर्मबन्ध के कारण-तत्त्वार्थसूत्र में मायाचार को तिर्यञ्चयोनि का आस्रवद्वार तथा उत्तर क्षण में तिर्यञ्चगतिरूप तिर्यञ्चायुकर्म बन्ध का हेतु बताया गया है। अर्थात्-कुटिल परिणाम रखना, छलकपट करना, मन में कुछ और रखना और बाहर में कुछ और दिखाना, ठगी और धोखाधड़ी करना तिर्यञ्चायु कर्मबन्ध का मुख्य कारण है। स्थानांगसूत्र में तिर्यञ्चायुकर्म बन्धने अर्थात्-पाशविक जीवन की प्राप्ति के १. (क) तत्त्वार्थसूत्र विवेचन (उपाध्याय केवलमुनिजी) से, पृ. २७९ (ख) रे कर्म ! तेरी गति न्यारी से, पृ. १३७ २. रे कर्म ! तेरी गति न्यारी से भावांशग्रहण, पृ. १३७ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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