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उत्तर - प्रकृतिबन्ध : प्रकार, स्वरूप और कारण - ४
३३९ देवों के कुल १९८ भेद होते हैं। देवों के इन १९८ प्रकारों में से किसी भी देवयोनि में जन्म प्राप्त कराना देवायुकर्म का कार्य है। 9
चारों प्रकार के आयुष्यकर्मबन्ध के हेतु
चारों प्रकार के आयुष्यकर्म के बन्ध के आगमों और कर्मग्रन्थ आदि में पृथक-पृथक कारण बतलाये गए हैं।
नरकायुष्यकर्म-बन्ध के कारण
नरकायुष्यकर्म के बन्ध के चार कारण स्थानांग सूत्र में बताये गए हैं - ( 9 ) महारम्भ, (२) महापरिग्रह, (३) पंचेन्द्रिय-वध एवं (४) मांसाहार ।
तत्वार्थसूत्र में नरकायुकर्म के दो मुख्य कारण बताये हैं - ( 9 ) अत्यधिक (बहुत) आरम्भ अर्थात् भयंकर तीव्रं हिंसाकर्म, (२) अत्यधिक परिग्रह रखने का भाव ( वृत्ति) यानी अत्यधिक संचय करने की वृत्ति । २ दूसरे शब्दों में यों कहा जा सकता है कि जो जीव महान् आरम्भ में आसक्त रहता है, वह भी इस जन्म के बाद नरकभव या नरकगति का आयुष्य बांध लेता है। महारम्भ में आसक्त कालसौकरिक (कसाई) मर कर इसी महारम्भ के प्रभाव से सप्तम नरक में गया। इसी प्रकार जो लोग बड़े पैमाने पर अनाप-शनाप भयंकर हिंसक या त्रसजीवों की हिंसा प्रमत्तयोग से क्रूर भावों से करें, मांस-मछली अंडों आदि का एक्सपोर्ट करें या हिंसक वृत्ति रखें तो नरक गति का मेहमान बनना पड़ता है। नरकायु के बंध का दूसरा कारण है - महापरिग्रह। उसका अर्थ है - वस्तुओं पर अत्यन्त मूर्च्छाभाव व आसक्ति रखना । जैसे-मम्मण सेठ ने सांसारिक परपदार्थों पर अत्यन्त आसक्ति रखी। एक निर्जीव बैल तो उसने हीरों, रत्नों आदि से जड़ित कर लिया था, दूसरा बैल वैसा ही बनाने के लिए वह कठोर श्रम करने लगा था। किन्तु मरने के बाद क्या मिला ? वही सातवीं नरक, जहाँ भयंकर यातनाएँ सहनी पड़ती हैं। यहाँ 'बहु' या 'महा' शब्द संख्यावाचक भी है और परिमाणवाचक भी है। अर्थात् - आरम्भ (हिंसाजनक क्रियाकलाप ) अधिक संख्या में तथा अधिक मात्रा में, तीव्र क्रूर भावों के साथ किया जाए वहाँ महारम्भ या बह्वारम्भ है। ममता - मूर्छाभाव ही परिग्रह है। बाह्य वस्तुओं या अपने शरीर आदि पर भी जो ममत्व-मूर्च्छा- आसक्ति होती है, वह परिग्रह है। परन्तु यहाँ बहु या महा शब्द से
१. (क) कर्मप्रकृति से भावांशग्रहण, पृ. ५०
(ख) रे कर्म तेरी गति न्यारी से, पृ. १३४-१३५
(ग) ज्ञान का अमृत से, पृ. ३१०
(घ) कर्मग्रन्थ भा. १, विवेचन ( मरुधरकेसरी) से, पृ. ९७
२. (क) चउहिं ठाणेहिं जीवा णेरतियत्ताए कम्मं पकरेंति, तंजहा- महारम्भताते, महा-परिग्गहताते,
पंचेंदियवहेणं, कुणिमाहारेण ।
(ख) बह्वारम्भ-परिग्रहत्वं च नरकस्यायुषः ।
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- स्थानांगसूत्र स्थान ४, उ. ४, सू. ३७३
- तत्त्वार्थसूत्र ६/१६
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