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________________ ३३८ कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) तिर्यञ्चायु कर्म-जिस कर्म के उदय से जीव को तिर्यञ्च (अमनुष्य) योनि में जीवन बिताना पड़े, तिर्यञ्चगति में, तिर्यञ्चयोनि में तथा तिर्यञ्च शरीर में उत्पन्न होकर रहना पड़े, अथवा तिर्यञ्चगति का जीवन बिताना पड़े, उसे तिर्यञ्चायु कर्म कहते हैं। तिर्यञ्चगति में एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय तो निश्चित ही होते हैं, पंचेन्द्रियजाति में देव, मनुष्य और नारक को छोड़कर शेष तिर्यञ्च- पंचेन्द्रिय होते हैं। अर्थात्-एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के जितने-जितने भेद हैं, वे सब तिर्यञ्चयोनि के अन्तर्गत हैं। एकेन्द्रिय जीव २२ प्रकार के होते हैं। यथा-पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय और वायुकाय, इन चारों के सूक्ष्म, बादर, पर्याप्तक और अपर्याप्तक, यों प्रत्येक के ४-४ भेद होने से ४ ४ ४ = १६ भेद हुए। वनस्पतिकाय के सूक्ष्म, साधारण और प्रत्येक, इनके पर्याप्तक और अपर्याप्तक ३ ४.२ = ६ भेद होते हैं। यों एकेन्द्रिय के १६ + ६ = २२ भेद हुए। द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवों के पर्याप्तक और अपर्याप्तक ये दो-दो भेद होने से ३ x २ = ६ भेद हुए। पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च के मुख्य ५ भेद-जलचर, स्थलचर, खेचर, उरपरिसर्प, भुजपरिसर्प, ये पाँचों संज्ञी और असंज्ञी होने से १० भेद हुए, फिर इन १० के पर्याप्तक और अपर्याप्तक, ये दो-दो भेद होने से १० x २ = २० भेद हुए। इस प्रकार तिर्यञ्चों के कुल ४८ भेद होते हैं। तिर्यञ्च जीवों के इन ४८ भेदों में से तिर्यञ्चगति की किसी भी जाति में किसी भी योनि में जन्म लेकर उसकी काल मर्यादा (आयु का काल) क्षय होने तक उसी शरीर में रहना तिर्यञ्चायु कर्म है। ___ मनुष्यायु कर्म-जिस कर्म के उदय से जीव को मनुष्यगति में जीवन व्यतीत करना पड़ता है, जिसके उदय से मनुष्यगति में जन्म हो, वह मनुष्यायु कर्म कहलाता है। मनुष्यों के ३०३ प्रकार हैं। जैसे-१५ कर्मभूमिज, ३० अकर्मभूमिज और ५६ अन्त-द्वीपज, ये सब मिलकर १०१ हुए। इनके पर्याप्तक-अपर्याप्तक ये दो-दो भेद होने से २०२ भेद हुए। इन २०२ में १०१ अपर्याप्त सम्मूर्छिम मनुष्य मिल जाने से ३०३ भेद मनुष्यजाति के होते हैं। इन ३०३ भेदों में से कर्मानुसार किसी भी मनुष्ययोनि में जन्म प्राप्त कराना, मनुष्यायु कर्म का कार्य है। देवायुकर्म-जिस कर्म के उदय से जीव को अमुक समय तक देवगति में रहना पड़ता है, देवगति में जीवन व्यतीत करना पड़ता है, अथवा जिसके उदय से देवगति में जन्म हो, उसे देवायु कहते हैं। देवभव की निश्चित आयु पूरी होने पर वे चाहकर एक क्षण भी अधिक नहीं रह सकते। देव १९८ प्रकार के होते हैं। जैसे-90 भवनपति, १५ परमाधार्मिक, १६ व्यन्तर, १० जृम्भक, १0 ज्योतिष्क, ३ किल्विषिक, ९ लोकान्तिक, १२ कल्पवासी, ९ ग्रैवेयक, ५ अनुत्तर-वैमानिक, यों सब मिलाकर ९९ भेद हुए। इनके पर्याप्तक और अपर्याप्तक ये दो-दो भेद कर लेने पर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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