SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 381
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उत्तर-प्रकृतिबन्ध : प्रकार, स्वरूप और कारण-३ ३३३ स्वयं की तथा अन्य की शक्तिहीनता, २. भयबीत करने वाले भयानक दृश्य देखनादिखाना, ३. भयजनक बातें सुनना-सुनाना, ४. मन में शंका-कुशंका करके सप्तविध भयों को बार-बार याद करके स्वयं को तथा दूसरों को भयभीत रखना, भय उत्पन्न करना-कराना। (६) जुगुप्सा-चतुर्विध संघ की, साधु-साध्वियों, धर्मात्माओं, धर्म तथा सदाचार आदि की निन्दा करना, उनसे घृणा करना, उनकी बदनामी करके उनके प्रति लोगों में घृणाभाव फैलाना आदि जुगुप्सा-मोहनीय कर्मबन्ध के कारण हैं। तीन प्रकार के वेदों के बन्ध के कारण-ईष्यालु, विषयों में अत्यासक्त, अतिकुटिल, स्त्रीलम्पट, कपटाचरण तथा परच्छिद्रान्वेषण करने वाला जीव स्त्रीवेद को बांधता है। स्वदारसन्तोषी, मन्दकषायी, सरल, शीलवती जीव पुरुषवेद का बन्ध करता है। तीव्र विषयाभिलाषी, नैतिकता की मर्यादा को भंग करने वाला तथा स्त्री एवं पुरुष दोनों की काम-वासना भड़काने वाली शारीरिक-वाचिक एवं मानसिक चेष्टा करने वाला जीव नपुंसक वेद का बंध करता है।' . इस प्रकार चारित्रमोहनीय की २५ प्रकृतियों के बन्ध के कारणों का पृथक्-पृथक् निर्देश किया गया है। आत्मार्थी मुमुक्षुओं को इन कर्मबन्ध के कारणों से बचने का सावधानीपूर्वक प्रयत्न. करना चाहिए। महामोहनीय कर्मबन्ध के ३0 कारणों की चर्चा हम 'मूल कर्म-प्रकृतियों के स्वभाव, स्वरूप और कारण' लेख में कर चुके हैं। ___ मोहनीय कर्म के अनुभाव (फलभोग) कैसे-कैसे होते हैं ? __ मोहनीय कर्म सभी कर्मों में प्रबलतम और भयंकर है, इसका बन्ध किन-किन कारणों से होता है? इस विषय में जो लोग असावधान रहते हैं, उनको उस-उस मोहनीय कर्म का बन्ध होता रहता है। बन्ध के बाद जब बद्ध कर्म उदय में आते हैं, उस-उस कर्म का फल भुगवाते हैं, उसे ही अनुभाव कहते हैं। मोहनीय कर्म का अनुभाव (फलभुगतान) पांच प्रकार का होता है-(१) सम्यक्त्व मोहनीय का फलभोगसम्यक्त्व प्राप्त न होना, (२) मिथ्यात्त्व-मोहनीय का फलभोग-तत्त्वों का अयथार्थ (विपरीत) श्रद्धान होना, (३) सम्यग-मिथ्यात्व-मोहनीय का अनुभाव-तात्त्विक श्रद्धान का डाँवाडोल होना, (४) कषाय-मोहनीय का अनुभाव-क्रोध आदि कषायों का उत्पन्न होना और (५) नो-कषाय-मोहनीय का अनुभाव-हास्यादि (जैसा जिसने जो कर्म बांधा है, तदनुसार) नोकषायों का उत्पन्न होना।२ . स्पष्टरूप से मोहनीय कर्म की २८ उत्तरप्रकृतियों का फल-भोग-निर्देश इस निरूपण से यह तथ्य स्पष्ट हो जाता है कि मोहनीय कर्म की जो २८ उत्तर-प्रकृतियाँ हैं, उन २८ प्रकारों से अपने-अपने द्वारा पूर्वबद्ध कर्मों के उदयानुसार १. (क) वही, पृ. १६४ . (ख) तत्त्वार्थसूत्र विवेचन (उपाध्याय केवलमुनि) से पृ. २७७-२७८ २. (क) ज्ञान का अमृत से पृ. ३०४ .. (ख) प्रज्ञापना, २३/२ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy