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________________ ३३४ कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) यह कर्म जीव को अपने-अपने फल का भुगतान करवा डालता है, अनुभाव कराता है। जैसे कि-सम्यक्त्व-मोहनीय के उदय से क्षायिक सम्यक्त्व का घात होता है, मिथ्यात्व-मोहनीय के उदय से देव-गुरु-धर्म के प्रति तथा तत्त्वों के प्रति विपरीत श्रद्धान होता है। मिश्र-मोहनीय का उदय जीव के तात्त्विक श्रद्धान को डाँवाडोल कर देता है। कषाय-मोहनीय के उदय से अपने-अपने पूर्वबद्ध कषाय तथा उसकी डिग्री के प्रकार के अनुसार उदय में आने पर अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानी, प्रत्याख्यानी और संज्वलनरूप क्रोध, मान, माया या लोभ की उत्पत्ति होती है। पुरुषवेद-मोहनीय, स्त्रीवेद-मोहनीय, नपुंसकवेद मोहनीय से स्व-स्वबद्धानुसार क्रमशः पुरुषवेद, स्त्रीवेद और नपुंसकवेद जाग उठता है, कामोत्पत्ति तदनुसार होती रहती है। हास्यमोहनीय के उदय से हास्य का, रति-अरतिमोहनीय के उदय से रति-अरति का, भयमोहनीय के उदय से भय का, शोकमोहनीय के उदय से शोक का, जुगुप्सामोहनीय के उदय से जुगुप्सा का मनोभाव प्रादुर्भाव होता रहता है। इस प्रकार मोहनीय कर्म जीव को अपनी-अपनी बर्द्ध-कर्म-प्रकृति के अनुसार अपने-अपने फल का भुगतान कराता रहता मोहनीय कर्म पर विजय कैसे प्राप्त हो ? __ मोहनीय कर्म की उत्तर-प्रकृतियों के स्वरूप, स्वभाव, कार्य तथा उनके बन्ध के कारणों और बन्धानुसार उदय में आने पर फलभोग को यथार्थ रूप से समझ कर इस प्रबलतम कर्म पर विजय प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिए, तथा जिन कारणों से इन प्रकृतियों का आगमन (आम्रव) और बन्ध होता है, उनसे बचने का अर्थात्-नये आते हुए कर्मों की रोकने का और पूर्वबद्ध कर्मों की निर्जरा (क्षय) करने का पुरुषार्थ करना चाहिए। १. ज्ञान का अमृत से पृ. ३०४-३०५ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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