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________________ ३३२ कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) उदय से व्याकुल मन वाला जीव अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन कषायों के १६ भेदों का बन्ध करता है। अप्रत्याख्यानावरणक्रोधादिचतुष्क के उदय से पराधीन हुआ जीव अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण. और संज्वलन क्रोधादि १२ कषायों को बांधता है। प्रत्याख्यानावरण क्रोधादि के उदय से. ग्रस्त जीव प्रत्याख्यानावरण तथा संज्वलन क्रोधादि ८ कषायों का बंध करता है। संज्वलन क्रोधादि-युक्त जीव सिर्फ संज्वलन क्रोधादि चार कषायों का बन्ध करता है। कषायमोहनीय कर्मबन्ध के विषय में आवश्यक सूचना यहाँ यह अवश्य समझ लेना चाहिए कि क्रोध, मान, माया और लोभ इन चारों कषायों का एक साथ उदय नहीं होता, अपितु चारों में से किसी एक का उदय होता है। साथ ही अनन्तानुबन्धी आदि चारों प्रकार के कषायों में से जिस प्रकार के कषाय का उदय होगा, उस सहित आगे के प्रकार भी साथ में रहेंगे, किन्तु उससे पूर्व का कषाय नहीं रहेगा। जैसे-अप्रत्याख्यानावरण कषाय का उदय होने पर अप्रत्याख्यानावरण सहित आगे के दोनों प्रकार के कषायों (प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन) का भी उदय रहेगा। किन्तु अनन्तानुबन्धी कषायचतुष्क का उदय नहीं रहेगा।२ नौ नोकषाय-मोहनीय कर्मबन्ध के कारण . हास्यादि नोकषायों से व्याकुल जीव हास्यादि ६ नोकषायों का पृथक्-पृथक् इन कारणों से कर्मबन्ध करता है-(१) हास्य-त्यागी या सत्यव्रतियों या तपस्वियों का उपहास करना, दीन, निर्धन या अंगविकल, अभावपीड़ित का मजाक उड़ाना, अथवा दूसरों की हंसी उड़ाने, दूसरों को हंसाने के लिए भाण्ड, विदूषक आदि जैसी चेष्टाएं करने से हास्यमोहनीय कर्म का बन्ध करता है। (२) रति-विविध प्रकार की क्रीड़ाओं में, चित्रविचित्र दृश्यों को देखने में रस लेने, कामभोगों में तीव्र रुचि रखने, असंयम एवं पाप के कार्यों में दिलचस्पी लेने तथा नीति-धर्मयुक्त विचारों एवं कार्यों में अरुचि-अप्रीति रखने आदि कारणों से रतिमोहनीय कर्मबन्ध होता है। (३) अरतिईर्ष्यालु, पापी, दूसरों को उद्विग्न, भयभीत एवं दुःखी करने वाला तथा बुरे कर्मों एवं दुष्कृत्यों के लिए दूसरों को उकसाने वाला तथा संयम में अरुचि और असंयम में तीव्र रुचि भाव करने वाला जीव अरतिमोहनीय कर्मबन्ध करता है। (४) शोक-स्वयं शोक-संतप्त रहना। दूसरों को भी शोक उपजाना आदि कार्यों से शोकमोहनीय कर्म का बन्ध होता है। (५), भय-स्वयं भयभीत रहने तथा दूसरों को विविध कारणों से भयभीत करने से भयमोहनीय कर्म का बन्ध होता है। भय के मुख्य कारण ये हैं-१. । -वही, गा. ५६ १. (क) दुविहंपि चरणमोहं कसाय-हासाई विसय-विवसमणो | बंधइ (ख) कर्मग्रन्थ प्रथम गा. ५६ विवेचन (मरुधरकेसरी) से पृ. १६३ २. कर्मग्रन्थ प्रथम विवेचन (मरुधरकेसरी) से, पृ. १६४ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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