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________________ ३२६ कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) है। प्रत्याख्यानावरण-लोभ-जैसे-काजल का रंग, सकोरे पर लगी हुई चिकनाई, अथवा गाड़ी के पहिये का कीट थोड़े से प्रयास से छूट जाता है, वैसे ही प्रत्याख्यानावरण लोभ के परिणाम भी कुछ प्रयत्न से छूट सकते हैं। प्रत्याख्यानवरण क्रोधादि कषायों की काल-मर्यादा चार माह की बताई गई है। इसके उदय से जीव मनुष्यगति के योग्य कर्मों का बन्ध करता है। (४) संज्वलन-कषाय चतुष्क : उपमान और फलपूर्वक लक्षण-जो क्रोधादि परिणाम जीव को यथाख्यात-चारित्र प्राप्त नहीं होने दें, उन्हें संज्वलन क्रोध आदि कहते हैं। इनके परिणाम क्रमशः जलरेखा, वेत्र-लता, बांस के छिलके तथा हल्दी के रंग के समान बताये गए हैं।१ । संज्वलन क्रोध-पानी में खींची हुई लकीर के समान जो क्रोध अनायास ही शान्त हो जाता है। यह क्रोध अत्यन्त सामान्य होता है, स्फुरित होते ही तुरन्त शान्त हो जाता है। संज्वलन मान-जैसे-बेंत की लता अथवा खली, घास का तिनका अपने आप ही मुड़ते ही सीधा हो जाता है अथवा नम जाता है, वैसे ही संज्वलन मान आते ही क्षणमात्र में अपना आग्रह छोड़कर स्वयमेव नम जाता है, विनम्रता में परिणत हो जाता है। संज्वलन माया-अवलेखिका यानी बांस के छिलके में रहने वाली वक्रता/टेढ़ापन अनायास ही सीधा हो जाता है, वैसे ही संज्वलन-माया के परिणाम आसानी से दूर हो जाते हैं। संज्वलन लोभ-सहज ही छूट जाने वाले हल्दी के रंग के समान संज्वलन-लोभ के परिणाम स्वतः मिट जाते हैं। संज्वलन कषाय की कालमर्यादा (उत्कृष्टतः) एक पक्ष की है। संज्वलन कषायों की अवस्थिति में जीव के देवमति-योग्य कर्मों का बन्ध होता है।२ इससे पूर्व अनन्तानुबन्धी चतुष्क आदि कषायों की काल-मर्यादा का जो कथन किया गया है, वह व्यवहारनय की अपेक्षा से समझना चाहिए; क्योंकि बाहुबलि मुनि आदि के संज्वलन कषाय एक वर्ष तक रहे और प्रसन्नचन्द्र राजर्षि को अनन्तानुबन्धी कषाय का उदय एक अन्तर्मुहूर्त तक के लिए ही रहा था। इसी प्रकार अनन्तानुबन्धी कषायों का उदय रहते हुए भी कुछ मिथ्यादृष्टियों को नव-प्रैवेयक तक में उत्पन्न होने का वर्णन मिलता है। तत्त्वं केवलिगम्यम्।३ पूर्वोक्त सोलह ही कषायों का विहंगावलोकन करने से इस प्रकार का रेखाचित्र निष्पन्न होता है १. तीव्रतम क्रोध-अनन्तानुबन्धी, पर्वत की दरार के समान,-स्थिरतम। २. तीव्रतम क्रोध-अप्रत्याख्यानी; तालाब की मिट्टी में पड़ी दरार के सदृश स्थिरतर। १. वे ही, पूर्वोक्त ग्रन्या २. वे ही पूर्वोक्त ग्रन्था ३. कर्मप्रकृति से, पृ. ३८ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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