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उत्तर-प्रकृतिबन्ध : प्रकार, स्वरूप और कारण-३ ३२७ ३. तीव्र क्रोध-प्रत्याख्यानी, धूल पर खींची रेखा के समान-स्थिर। ४. मन्द क्रोध-संज्वलन-जल में खींची रेखा के समान अस्थिर-तात्कालिक। ५. तीव्रतम मान-अनन्तानुबन्धी-पत्थर के खंभे के समान-दृढ़तम। ६. तीव्रतर मान-अप्रत्याख्यानी-हड्डी के खंभे के समान-दृढ़तर। 3. तीव्र मान–प्रत्याख्यानी-काष्ठ के वंधे के समान हट्ट ८. मन्द मान-संज्वलन-लता के समान-लचीला। ९. तीव्रतम माया-अनन्तानुबन्धी-बांस की जड़ (गांठ) के समान-वक्रतम। १०. तीव्रतर माया-अप्रत्याख्यानी-मेंढे के सींग के समान-वक्रतर। ११. तीव्र माया-प्रत्याख्यानी-चलते बैल की मूत्रधारा के समान-वक्र। १२. मंद माया-संज्वलन-छिलते बांस की छाल के समान-स्वल्पवक्र। १३. तीव्रतम लोभ-अनन्तानुबन्धी-किरमिची रंग के समान-गाढ़तम रंग। १४. तीव्रतर लोभ-अप्रत्याख्यानी-कीचड़ के समान-गाढ़तर रंग। १५. तीव्र लोभ-प्रत्याख्यानी-खंजन के समान-गाढ़ रंग। १६. मन्द लोभ-संज्वलन-हल्दी के रंग के समान-तत्काल उड़ने वाला रंगा? अनन्तानुबन्धी आदि कषायों की शुभाशुभ कर्म प्रकृतियों से होने वाला रसबन्ध
अनन्तानुबन्धी कषाय के प्रभाव से अशुभ अध्यवसाय के कारण जब कर्म-पुदगलों का बन्ध होता है, तो वह अत्यन्त तीव्र अर्थात्-चतुःस्थानिक तिक्त या कष्टदायक फलप्रदायक रसयुक्त होकर बद्ध होता है। परन्तु जो पुद्गल शुभ-प्रकृति लेकर बद्ध होते हैं, वे मधुरतर, अर्थात्-विस्थानिक सुखदायक फल प्रदानकारी रस लेकर होते हैं। अप्रत्याख्यानावरणीय कषाय के उदय से कर्मबन्ध के समय अशुभ-प्रकृति-विशिष्ट कर्म तीव्रतम या त्रिस्थानिक तिक्त या कष्टदायक फलप्रदानकारी रस लेकर बद्ध होता है, एवं शुभ-प्रकृति-विशिष्ट कर्म तीव्रतम या त्रिस्थानिक मधुर यानी सुखदायक फल-प्रदानकारी रस लेकर बद्ध होता है। प्रत्याख्यानावरणीय कषाय के उदयकाल में कर्मबन्ध के समय अशुभ-प्रकृतिविशिष्ट कर्म तीव्रतर या द्विस्थानिक कष्टदायकफलप्रदानकारी रसबन्ध होता है। तथा शुभ-प्रकृति-विशिष्ट कर्म अत्यन्त तीव्र या चतुः स्थानिक सुखदायक फलप्रदानकारी रस लेकर बद्ध होते हैं। संग्वलन-कषाय के उदय से अशुभ प्रकृति विशिष्ट कर्म तीव्र या एकस्थानिक कष्टदायक फलप्रदानकारी रस लेकर, तथा शुभप्रकृतिविशिष्ट कर्म अत्यन्त तीव्र या चतुःस्थानिक सुखदायक फलप्रदानकारी रस लेकर बद्ध होता है।२
१. जैनयोग से पृ. ३३ २. जैन धर्म और दर्शन से पृ. १०९
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