SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 373
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उत्तर-प्रकृतिबन्ध : प्रकार, स्वरूप और कारण-३ ३२५ (२) अप्रत्याख्यानावरण-चतुष्क : उपमान और फलपूर्वक लक्षण-जिन क्रोधमानादि परिणामों के उदय से जीव देशविरति (श्रावकाचार) को ग्रहण करने में असमर्थ होता है उसे अप्रत्याख्यानावरण क्रोध आदि कहते हैं। इस प्रकार के क्रोधादि के परिणामों के लिए प्रतीकरूप में क्रमशः पृथ्वीभेद, अस्थि (हड्डी), मेषशृंग और चक्र-मल की उपमा दी गई है। अप्रत्याख्यानावरण क्रोध-सूखे तालाब में पड़ी हुई मिट्टी की दरार पानी के संयोग से पुनः मिट जाती है, वैसे ही अप्रत्याख्यानावरण क्रोध भी अधिक परिश्रम और उपाय से शान्त हो जाता है। अप्रत्याख्यानावरण मान-हड्डी के समान बताया गया है। हड्डी को नमाना हो, या मुड़ी हुई हड्डी को सीधी करनी हो तो लगभग एक वर्ष तक तेल आदि के मर्दन से वह झुक जाती है या सीधी हो जाती है। उसी प्रकार अप्रत्याख्यानी मान का धनी अधिक से अधिक एक वर्ष तक अकडा रहता है. आखिर नम जाता है। अप्रत्याख्यानावरण माया-मेंढे के सींग से उपमित की गई है। जैसे-मेंढे के सींग में रही हुई वक्रता कठिन परिश्रम और अनेक उपायों से दूर होती है, वैसे ही अप्रत्याख्यानी माया के परिणाम भी अतिपरिश्रम और उपाय से सरलता में परिणत होते हैं। अप्रत्याख्यानावरण लोभ-गाड़ी के पहिये में लगा हुआ कीचड़ वस्त्र में लग जाए तो अत्यधिक परिश्रम से साफ किया जा सकता है, वैसे ही परिणाम अप्रत्याख्यानी वर्ग के लोभ के होते हैं। जो बड़ी कठिनाई से छूटता है। इन चारों का वासनाकाल, कालमर्यादा एक वर्ष का है। इनके उदय से तिर्यंचगति का बन्ध होता है। यहाँ अधिक परिश्रम, उपाय और प्रयोग का अभिप्राय-आत्मा द्वारा धर्मचिन्तन, गुरुवन्दन, उपदेशश्रवण आदि शुभ क्रियाएँ हैं। मनुष्यता, कर्तव्यपालन, नैतिकता, शिष्टाचार आदि लाभ भी हैं। (३) प्रत्याख्यानावरण चतुष्क : उपमान और फलपूर्वक लक्षण-प्रत्याख्यानावरण क्रोध-मानादि के परिणामों के उदय से जीव सर्वविरति चारित्र ग्रहण करने में असमर्थ रहता है। इसीलिए इनकी प्रत्याख्यानावरण क्रोध आदि संज्ञाएँ हैं। प्रत्याख्यानावरण क्रोध आदि परिणामों को क्रमशः धूलि-रेखा, सूखी लकड़ी, गोमूत्र-रेखा और काजल के रंग (अथवा खंजन-गाड़ी के पहिये की कीट, सकोरे पर लगी चिकनाई) के सदृश बंताया गया है। प्रत्याख्यानावरण क्रोध-जैसे धूल पर खींची हुई लकीर हवा आदि के द्वारा कुछ ही समय में मिट जाती है, वैठे ही प्रत्याख्यानावरण क्रोध भी कुछ उपायों से शान्त हो जाता है। प्रत्याख्यानावरण मान-जैसे-सूखी लकड़ी तेल-पानी आदि के प्रयोग से नरम हो जाती है, मोड़ी जा सकती है, वैसे ही प्रत्याख्यानावरण मान आत्मा के अल्प प्रयास से समाप्त और नम्र हो जाता है। प्रत्याख्यानावरण-माया-जैसे चलते हुए बैल के मूत्र से पड़ने वाली टेढ़ी-मेढ़ी रेखा हवा आदि से सूख जाने पर मिट जाती है, वैसे ही इस परिणाम वाले की माया (वक्रता) भी अल्प प्रयास से सरलता में परिवर्तित हो जाती Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy