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________________ उत्तर-प्रकृतिबन्ध : प्रकार, स्वरूप और कारण-३ ३१५ ___ सम्यक्चारित्र और मिथ्याचारित्र में अन्तर कई बार साधक बाह्य त्याग, तप क्रियाएँ खूब ऊँची और कठोर कर लेता है, स्थूलदृष्टि वाले लोगों से भी वह बाहवाही, प्रसिद्धि और प्रशंसा पा जाता है, परन्तु अन्तरंग में आत्मा के गुणरूप निश्चय चारित्र, स्वभावस्थिति, कषायोपशान्तता, समता-शमता की ओर उसका लक्ष्य नहीं होता। इस प्रकार के तथाकथित चारित्र के पीछे दृष्टि या श्रद्धा सम्यक न होने से उस साधक की समस्त कठोर क्रियाएँ, तपस्या, त्याग आदि विकल्पों तथा कषायों से युक्त होने के कारण मिथ्याचारित्र की कोटि में आ जाती हैं। पूर्वोक्त प्रकार की मिथ्यादृष्टि होने के कारण वह साधक अपने तप, त्याग के विकल्पों से पीछे न हटकर अन्तरंग समता-शमता की ओर नहीं झुक पाता। परन्तु सम्यग्दृष्टि या ज्ञानी अपनी भूमिका के अनुसार तप, त्याग, क्रिया करता है, किन्तु उसके पीछे विकल्प, क्षोभ, निन्दा, टीका-टिप्पणी, अहंवृत्तिपोषण आदि नहीं होता, वह समता-शमता की प्राप्ति के लक्ष्य को सामने रखकर ही सब कुछ प्रवृत्ति करता है। ___ यद्यपि सम्यग्दृष्टि या व्यवहार चारित्री साधक साधकदशा में पूर्ण वीतराग, पूर्ण समभावी, पूर्णतः कषायत्यागी नहीं हो पाता, भूमिकानुसार उसमें भी क्रोधादि कषाय तथा इष्टानिष्ट पदार्थों या विषयों के प्रति राग-द्वेषभाव आ जाता है, परन्तु उसके सामने लक्ष्य एवं दृष्टि स्पष्ट होने के कारण देर-सबेर उनका नष्ट हो जाना अवश्यम्भावी है। सम्यग्दृष्टि अपने इस आचरित बाह्य त्याग-तप-प्रत्याख्यानादि को प्रदर्शन, आडम्बर या प्रसिद्धि का साधन नहीं बनाता, क्योंकि उसके सामने समता या शमता-प्राप्ति का लक्ष्य स्पष्ट रहता है। इसलिए विकारयुक्त अल्प चारित्र को भी उपचार से सम्यक्चारित्र कहा जाता है, जबकि मिथ्यादृष्टि की उपर्युक्त कठोर-त्याग-तप-वैराग्यपूर्ण प्रवृत्ति भी मिथ्याचारित्र नाम पाती हैं। क्योंकि उसके समक्ष लक्ष्य स्पष्ट नहीं, उसकी दृष्टि स्पष्ट नहीं है। इसलिए' अव्यक्तरूप में स्थित कषायादि विकार नष्ट नहीं हो पाते। चारित्र के विकार हैं-कषाय, नोकषाय, राग, द्वेष, मोह आदि। चारित्र के उपर्युक्त विकारों को उद्भावित करके आत्मा के स्वभाव को विकृत करने वाली कर्मप्रकृति का नाम चारित्रमोहनीय है। इसीलिए आत्मा के गुणों का घात करने वाले कर्म को चारित्रमोहनीय कहते हैं। चारित्रमोहनीय के उदय से जीव अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, क्षमादि दशविध श्रमणधर्म तथा श्रावक धर्म आदि के मार्ग पर नहीं चल पाता, अथवा चलता है, तब भी लड़खड़ा जाता है। जैसे-नन्दीषेण मुनि लड़खड़ा गए थे, अर्हन्नक (अरणक) मुनि लड़खड़ा गए थे। चारित्रमोहनीय में आचरण को विकृत-विपरीत या कुण्ठित करने की बात है। ___ अहितकर आचरण की प्रवृत्ति के हेतुभूत मानसिक विकार तथा हिताचरण के अवरोधक मनोविकारों तथा कामविकारों के स्रोत वेदत्रय को उत्तेजित करने की बात १. कर्म सिद्धान्त से पृ. ६५ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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