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________________ ३१६ कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) चारित्र - मोहनीय कर्म के कार्य हैं। उसके शस्त्र हैं - कषाय, नोकषाय आदि जिनसे वह बड़े-बड़े त्यागी, वैरागी, महात्माओं, विरक्तात्माओं, महाव्रतियों को भी अपनी लपेट में ले लेता है। अनन्त चारित्र आत्मा का मूल गुण है, उसे यह चारित्रमोहनीय रोकता है, विकृत कर देता है | चारित्र में रमण कराने के बदले चारित्रमोहनीय कर्म पौद्गलिक भावों (परभावों) तथा विभावों में रमणता कराता है। वह प्राणी को इतना पराधीन या मूढ़ बना देता है कि वह परभाव को स्व-भाव मान बैठता है। प्रायः उसकी वृत्ति प्रवृत्ति को देखते हुए ऐसा लगता है, मानो उस व्यक्ति का स्वभाव ही ऐसे मनोविकारों में रमण करने का हो। इतनी विपरीतता ला देने की शक्ति इस चारित्रमोहनीय कर्म में है। श्री सिद्धर्षि गणि ने उपमितिभवप्रपंचा कथा के चतुर्थ प्रस्ताव में मोह महाराजा की विशाल सेना का परिचय दिया है, उस पर से स्पष्ट समझ में आ जाता है कि चारित्रमोह कितना भयंकर है। ' चारित्रमोहनीय कर्म को दो भागों में विभक्त किया गया है - ( 9 ) कषाय- वेदनीय और नोकषाय- वेदनीय । २ कषायमोहनीय : कषायवेदनीय क्या है ? कषायवेदनीय-कषाय का अर्थ है - जो आत्मा के शान्ति, मृदुता, ऋजुता और समता आदि गुणों को, अथवा आत्मा के स्वाभाविक रूप को कषे - नष्ट करे, उसे कषाय कहते हैं। अथवा - कष यानी - जन्म-मरणरूप संसार और उसकी आय अर्थात् आमदनी - प्राप्ति जिस कर्म से हो, वह कषायवेदनीय है। अथवा क्रोध, मान, माया, लोभरूप आत्मा के वैभाविक परिणाम विशेष जो सम्यक्त्व, देशविरति, सर्वविरंति और यथाख्यात चारित्र का घात करते हैं, वे कषाय कहलाते हैं। अथवा जिन क्रोधादि परिणामों द्वारा आत्मा के साथ कर्म संश्लिष्ट हो जाते हैं, उन क्रोधादि परिणामों को कषाय कहते हैं। और जिस कर्म के उदय से जीव कषाय का वेदन करता है, उसे कषायवेदनीय कर्म कहते हैं। अथवा जिस कर्म के कारण क्रोधादि कषायों की उत्पत्ति हो उसे कषाय - मोहनीय कहते हैं । ३ 9. जैन दृष्टिए कर्म से भावांश ग्रहण, २. (क) चरित्तमोहणं कम्मं दुविहे तु वियाहि यं । कसाय- मोहणिज्जंतु नोकसायं तहेव यं ॥ (ख) दुविहं चरित्त - मोहं - कसायवेयणीयं नोकसायमिदि । (ग) प्रज्ञापना २३ / २ ३. (क) कषः संसारस्तस्य आयो लाभ इति कषायः । (ख) चारित्र परिणामकषणात् कषायः । - तत्त्वार्थ राजवार्तिक ९/७ (ग) कष्यन्ते हिंस्यन्ते परस्परमस्मिन् प्राणिन इति कषः । कषमयन्ते गच्छन्त्येभिर्जन्तवः इति - प्रथम कर्मग्रन्थ टीका गा. १७ कषायाः । (घ) सम्यक्त्वं तत्त्वार्थ श्रद्धानं 'चारित्र एवंविधमात्मविशुद्धि-परिणामान् कषेतिहिंसन्तिघ्नन्तीतिक कषायाः । (ङ) जस्स कम्मस्स उदएण जीवो कसायं वेदयति तं कम्मं कसायवेदनीयं । Jain Education International - उत्तराध्ययन ३३/१० - कम्मपयडी ५५ For Personal & Private Use Only - क. प्र. ६१ -धवला १३/५ www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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