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________________ ३१४ कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) व्यवहार चारित्र, निश्चयचारित्र का साधन इस स्थिति को हस्तगत करने के लिए व्रत-महाव्रत, समिति, गुप्ति, त्याग, तप, प्रत्याख्यान, बाह्य विषयों तथा वासनाओं का त्याग, त्याग के लिए नियम-उपनियम आदि बाह्य चारित्र-व्यवहार चारित्र साधक की प्राथमिक भूमिका में अत्यन्त आवश्यक है। परन्तु यह ध्यान रहे, यह चारित्र वास्तविक (निश्चय) चारित्र नहीं, चारित्र का साधन है। जिस प्रकार औषधि स्वास्थ्य नहीं, स्वास्थ्य-प्राप्ति का साधन है; उसी प्रकार बाह्य चारित्र के ये सब प्रकार भी आत्मिक स्वस्थता-स्वरूप-रमणता के साधन हैं। इसीलिए आगमों में इसी व्यवहारचारित्र का ही विशेष उल्लेख किया है, और उसके पांच भेद बताए हैं-(१) सामायिक चारित्र, (२) छेदोपस्थापनिक चारित्र, (३) परिहारविशुद्धि चारित्र, (४) सूक्ष्म सम्परायचारित्र और (५) यथाख्यात चारित्र। ये पांचों प्रकार के चारित्र उत्तरोत्तर उच्च भूमिका वाले साधकों के लिए हैं। __ वैसे चारित्र के दो भेद भी किये हैं-सर्व-विरति और देशविरति। मन-वचन- काया से त्रिकरण त्रियोग से हिंसा, असत्य, चोरी, मैथुन और परिग्रहवृत्ति का सर्वथा त्याग करना सर्वविरति है और हिंसादि पांच पापों का देशतः (अंशतः) त्याग करना देशविरति चारित्र है। इसीलिए 'धवला' में पाप क्रियाओं से निवृत्ति को चारित्र कहा है। अथवा चारित्र का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ किया गया है-जो कमों के चय-संचय को रिक्त-खाली करता है, अथवा नष्ट करता है, उस अनुष्ठान को चारित्र कहते हैं। वस्तुतः पहले कहे अनुसार चारित्र आत्मा का गुण है, आत्मा का शुद्ध उपयोग या परिणाम है। आत्मा के इस चारित्र गुण का घात करने वाले कर्म को अथवा आत्मा के स्वरूपरमणता की शक्ति या स्वभाव-स्थिति को विकृत-मोहित-कुण्ठित कर देने वाले कर्म को चारित्र-मोहनीय कहते हैं। अथवा पूर्वोक्त पंच-चारित्र या द्विविध चारित्र का घात करने वाले कर्म को चारित्र-मोहनीय कर्म कहते हैं। जो भी हो, चारित्रमोहनीय आत्मा के पूर्वोक्त निश्चयचारित्र के समतादि गुणों पर आक्रमण करता है। पालन करना चाहते हुए भी यह कर्म उसकी कर्तृत्व शक्ति, आचरण शक्ति या पालन के उत्साह को कुण्ठित, विकृत बना देता है।२ १. (क) कर्मसिद्धान्त से (ख) स्थानांग सूत्र स्थान ५ (ग) ज्ञान का अमृत से पृ. २९० (घ) पाप क्रिया-निवृत्तिश्चारित्रम् । (ङ) कर्मणां चयं रिक्ती करोति इति चारित्रम् । २. (क) ज्ञान का अमृत से, पृ. २९० (ख) कर्मप्रकृति से पृ. २१ -धवला ६/१, ९-१ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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