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________________ उत्तर-प्रकृतिबन्ध : प्रकार, स्वरूप और कारण-३ ३१३ चारित्र का लक्षण है-अशुभ से निवृत्ति और शुभ में प्रवृत्ति। व्रत, नियम, त्याग, प्रत्याख्यान, बाह्य-आभ्यन्तर तप, समिति, गुप्ति आदि सब चारित्र के नाम से प्रसिद्ध हैं, कषायविजय, विषयासक्तित्याग आदि भी चारित्र के नाम से जाने जाते हैं, परन्तु ये सब व्यवहार चारित्र की कोटि में हैं, ये निश्चय चारित्र को प्राप्त करने के लिए साधन हैं, साध्य निश्चय चारित्र है, जिसका लक्षण इस प्रकार किया गया है चारित्तं खलु धम्मो, धम्मो जो सो ति णिहिट्ठो । मोह-क्खोह-विहीणो-परिणामो अप्पणो हु समो ॥ चारित्र आत्मा का धर्म है। जिसे शास्त्रों में समता, शमता, वीतरागता, शुद्धोपयोग, शुद्धपरिणाम, ज्ञाताद्रष्टाभाव, भेदविज्ञान आदि संज्ञाओं से धर्म नाम से निर्दिष्ट किया गया है। वस्तुतः मोह और क्षोभ से विहीन समता और शमता (उपशान्ति) युक्त परिणाम ही परमार्थतः सम्यकृचारित्र है। जो कि आत्मा का ही परिणाम है। भगवती सूत्र में सामायिक, त्याग, प्रत्याख्यान, संवर आदि को आत्मा और उनका अर्थ-प्रयोजन भी आत्मा-आत्म-स्वभाव में अवस्थिति बताई गई है। बाह्य त्याग, तप, व्रत आदि का आचरण कर लेने पर भी अन्तर् में मोह और क्षोभ विद्यमान हैं तो वह चारित्र नहीं, चारित्राभास है। बाह्य विषयों में मैं, मेरा, तू, तेरा अथवा इष्ट-अनिष्ट, ग्राह्य-त्याज्य, प्रीति-अप्रीति, प्रियता-अप्रयिता आदि द्वन्द्व या विकल्प रहे तो यह मोह है। यही परमार्थतः मिथ्यादर्शन है। भगवती सूत्र में मायी को मिथ्यादृष्टि और अमायी को सम्यग्दृष्टि कहा गया है। परन्तु पूर्वोक्त या ऐसे ही अन्य विकल्पों और बाह्य प्रवृत्ति-निवृत्तियों की उधेड़बुन में लगे रहने के कारण अन्तरंग में सतत विकल्पों और कषायों-नोकषायों की भगदड़ मची रहती है। अन्तरंग की यह भगदड़ ही क्षोभ शब्द का वाचक है। जिसे आकुलता या चित्तगत अशान्ति कहना चाहिए। आत्मा के स्व-भाव से विपरीत होने के कारण यही मिथ्या-चारित्र है। मोह के अभाव से समता प्रादुर्भूत होती है, जिसमें तेरे-मेरे, इष्ट-अनिष्ट, ग्राह्य-त्याज्य, प्रिय-अप्रिय के द्वन्द्व या विकल्प नहीं होते। इसी प्रकार क्षोभ के अभाव से शमता (उपशमभाव-शान्ति) प्रगट होती है। चित्तविश्रान्ति या अनाकुलता उसका स्वरूप है। मोह और क्षोभ से विहीन समता या शमता से युक्त परिणाम आत्मा का स्वभाव है, उसे प्राप्त करना पूर्वोक्त सम्यक् चारित्र का उद्देश्य है।२ १. (क) कर्म-सिद्धान्त से पृ. ६३ .. (ख) कर्मप्रकृति से पृ. २० (ग) असुहादो विणिवित्ति सुहे पवित्ति य जाण चारित्ते । २. (क) कर्मसिद्धान्त से भावांशग्रहण ' (ख) मायी मिच्छादिट्ठी अमायी सम्मदिट्ठी । -भगवती सूत्र Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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