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________________ ३१२ कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) सम्यक्त्वमोहनीय से सम्बन्धित होने से सम्यक्त्व का यह विश्लेषण करना यथोचित है। वेदक-सम्यक्त्व-क्षायोपशमिक सम्यक्त्व में विद्यमान जीव जब सम्यक्त्वमोहनीय के अन्तिम पुद्गल के रस का वेदन (अनुभव) करता है, उस समय के उसके परिणाम को वेदक सम्यक्त्व कहते हैं। सास्वादन-सम्यक्त्व-उपशम-सम्यक्त्व से च्युत होकर मिथ्यात्व के अभिमुख हुआ जीव जब तक मिथ्यात्व को प्राप्त नहीं करता, तब तक के उसके परिणाम-विशेष को सास्वादन सम्यक्त्व कहते हैं। सास्वादन का दूसरा नाम सासादन भी है। कारक-सम्यक्त्व-जिनोक्त क्रियाओं-सामायिक, प्रतिक्रमण, गुरुवन्दन, आदि श्रद्धापूर्वक करना कारक-सम्यक्त्व है। रोचक सम्यक्त्व-जिनोक्त क्रियाओं में रुचि रखना रोचक सम्यक्त्व है। दीपक-सम्यक्त्व-जिनोक्त क्रियाओं से होने वाले लाभ का समर्थन एवं प्रचार-प्रसार करना दीपक-सम्यक्त्व है। इसी प्रकार सम्यक्त्व के अन्य भेदों के लक्षण भी समझ लेने चाहिए।२ सम्यग्दर्शन या सम्यक्त्व का जीवन में बहुत बड़ा महत्व है। सम्यक्त्व न हो, वहाँ तक प्राणी घोर अज्ञानान्धकार में पड़ा रहता है, सच्ची दृष्टि और सच्ची तत्त्वश्रद्धा-रुचि के बिना व्यक्ति या तो सम्प्रदायवादी या गतानुगतिक बन जाता है, वही मिथ्यात्व है। ऐसी मिथ्यात्वदशा में व्यक्ति उलटे मार्ग पर चल पड़ता है। विपरीतदशा में आत्मा के सम्बन्ध में भी विपरीत दर्शनी (दृष्टि) बन जाता है। ऐसा विपरीत दर्शन होना ही दर्शनमोहनीय है। दर्शन विपरीत हुआ तो ज्ञान, क्रिया, चारित्र, तप सभी मिथ्या-विपरीत होंगे, संसारमार्ग की ओर ले जाने वाले होंगे। इसलिए दर्शनमोहनीय को यथार्थ रूप से पहचानना, उसके तीन पुंजों को भी जानना-समझना और तत्त्व श्रद्धा करके आगे बढ़ना ही मोक्षमार्ग के प्रथम सोपानसम्यक्त्व पर चरण रखना है।३ चारित्रमोहनीय : उत्तरप्रकृतियाँ, स्वरूप और स्वभाव चारित्र के लक्षण और कार्य ___ मोहनीय कर्म का दूसरा भेद चारित्र-मोहनीय है। आत्मा को अपने स्वभाव की प्राप्ति या अपने आत्मस्वरूप में रमणता चारित्र है। यह निश्चय चारित्र है। व्यवहार १. (क) तत्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् । तत्वार्थसूत्र १/२ (ख) भूयत्थेणाभिगदा जीवाजीया य पुण्ण-पावं य । ___ आसव-संवर-णिज्जर-बंधो मोक्खो य सम्मत्तं ॥ -समयसार १३ (ग) कर्मग्रन्थ प्रथम भाग, विवेचन (मरुधरकेसरी) से साभार उद्धृत पृ. ७६, ७७ २. कर्मग्रन्थ भा. १, विवेचन (मत्थरकेसरी) पृ. ७८ ३. जैनदृष्टिए कर्म से पृ. ६२ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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