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________________ उत्तर-प्रकृतिबन्ध : प्रकार, स्वभाव और कारण-३ ३०३ (२) धर्म को अधर्म समझना-अहिंसा-सत्यादि धर्म, क्षमादि दशविध धर्म, सम्यग्दर्शन आदि रत्नत्रयरूप धर्म को या श्रुत-चारित्ररूप धर्म को अधर्म समझना और चमत्कार, आडम्बर, थोथे प्रदर्शन से रहित त्याग-तपरूप धर्म को कष्टकर होने से अधर्म समझ लेना। (३) अजीव को जीव मानना-शरीर, इन्द्रिय, मन, पाषाण, पुतला, फोटो आदि अजीव (चेतनारहित-जड़) पदार्थ को जीव मानना, शरीरादि को आत्मा समझना।। (४) जीव को अजीव मानना-समझना-जैसे कई मतवादी हरी वनस्पति, सचित्त पानी, सचेतन पृथ्वी, अग्नि तथा वायु आदि एक इन्द्रिय वाले जीवों में जीव नहीं मानते और इनका मनमाना उपयोग और प्रयोग करके इन जीवों को त्रास पहुँचाते हैं। आज तो वनस्पति, पानी, पृथ्वी, अग्नि आदि में जैव-वैज्ञानिकों द्वारा चेतना-जीवत्व सिद्ध किया जा चुका है। कई मतवादी, मांसलोलुप जीव द्वीन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय जीवों को जीव न मान कर मारने-पीटने, सताने, जलाने और नष्ट करने में ही अपनी शान समझते हैं। कई लोग गाय, बकरी, मुर्गा, मैंसा, मछली आदि पंचेन्द्रिय अबोल प्राणियों को जीव न मानकर, उनका बध, मांस खाने, चमड़े का उपयोग करने, फैशन और सौन्दर्य प्रसाधक वस्तुएँ बनाने, दवाइयाँ बनाने, दांत-हड्डी, मृगचर्म आदि के रूप में उपयोग करने, देवी-देवों के नाम पर पशु-पक्षी की बलि देने आदि में अपना गौरव समझते हैं। Cow has no soul (गाय में आत्मा नहीं है), यह ऐसे लोगों की मान्यता का निदर्शन है। अंडे में जीव होते हुए भी उसे प्रान्तिवश निर्जीव मानकर कई लोग धड़ल्ले से उपयोग करते हैं। यह मिथ्यात्व है। (५) उन्मार्ग (कुमाग) को (संसार के मार्ग को) सन्मार्ग-मोक्ष का मार्ग समझनाआत्मा को संसार-परिभ्रमण कराने वाले भोगविलास, स्वच्छन्दाचार, अनैतिक प्रवृत्ति, विषयासक्ति, सौन्दर्य प्रतिस्पर्धा, खोटे रीतिरिवाज, दहेज आदि कुप्रथाएँ, हिंसक एवं कामवर्द्धक मार्गों को सुखशान्तिकारक सन्मार्ग समझना; इन्हीं कुमार्गों को प्राचीनता या नवीनता के नाम पर सन्मार्ग-मुक्तिमार्ग मानना-समझना। (६) सुमार्ग को उन्मार्ग समझना-जो ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप का, आत्मस्वरूप-रमणता का, आत्मशुद्धि-साधनरूप धर्म का और परम्परा से मोक्ष (कर्ममुक्ति) का सुमार्ग है, उसे उन्मार्ग समझना। अर्थात्-संसार भ्रमण कराने वाले कार्यों, सुखसुविधाजनक कार्यों को अच्छा मार्ग समझना और जो सुमार्ग हैं, मोक्ष के कारण हैं, उन्हें कष्टकर मानकर उन्हें संसार के बन्ध का कारण मानना। (७) सच्चे त्यागी, स्व-परकल्याणकर्ता साधु को असाधु (साधु न) मानना। (८) जो सच्चे माने में साधु नहीं हैं, विषय-विलासी, प्रपंची, शराबी, भंगेड़ी, गंजेड़ी या बाह्य चमत्कारी वेषधारी असाधु हैं, उन्हें साधु मानना। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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