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________________ ३०४ कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) (९) कर्मरहित को कर्मसहित मानना। जैसे-परमात्मा वीतराग एवं कर्मरहित हैं, किन्तु उन्हें कर्मयुक्त मानकर संतान, धन, सुख-शान्ति, रक्षा, विजय प्रदान करेंगे, ऐसा मानना। __ (१०) कर्मसहित को कर्मरहित मानना-कहना-जो देवी, देव आदि कर्म सहित हैं, . उन्हें कर्मरहित मानकर उनसे वरदान मांगना, वे शत्रुओं का नाश करेंगे, अपने भक्त, चाहें कैसे भी अन्यायी-अत्याचारी, व्यभिचारी हों, उनके प्रति मोहवश उनकी रक्षा करेंगे, वे भगवान् हैं, इत्यादि मानना। भगवान् सब कुछ करते हुए भी अलिप्त हैं, ऐसे मानना। मिथ्यात्व के इन १० भेदों के अलावा ५ और २५ भेद भी बताए गए हैं। इन.. भेदों के सिवाय भिन्न-भिन्न दृष्टियों, प्रकारों और अपेक्षाओं से और भी अनेक भेद हो सकते हैं। मिथ्यात्व के पाँच भेद मिथ्यात्व का लक्षण है-तत्वों से विपरीत या अयथार्थ श्रद्धानरूप जीव के परिणाम को मिथ्यात्व कहते हैं। मिथ्या-मान्यताओं, धारणाओं, कुआग्रहों, नासमझी, विचार शैथिल्य, बहकावे आदि के कारण भी जीव मिथ्यात्वदोषग्रस्त बन जाता है। इस अपेक्षा से शास्त्रकारों ने मिथ्यात्व के पाँच मुख्य भेद बताए हैं-(१) आभिग्रहिक मिथ्यात्वं-तत्त्व की परीक्षा किये बिना, जाँचे-परखे बिना ही पक्षपात या पूर्वाग्रह पूर्वक एक ही सिद्धान्त या मान्यता का आग्रह रखना। अन्य पक्ष या मत का खण्डन करना, द्वेषपूर्वक उसका विरोध करना। (२) अनाभिग्रहिक मिथ्यात्व-गुणदोष की परीक्षा किये बिना ही सब मतों-पक्षों या सिद्धान्तों को बराबर समझना। (३) आभिनिवेशिक मिथ्यात्व-अपने पक्ष या मत को असत्य जानते हुए भी उसकी स्थापना के लिए दुरभिनिवेश-दुराग्रह करना, (४) सांशयिक मिथ्यात्व-देव, गुरु या धर्म का ऐसा स्वरूप है या दूसरा कोई स्वरूप है ? इस प्रकार संदेहशील बने रहना, निर्णय न करना। (५) अनाभोगिक मिथ्यात्वऐसा मिथ्यात्व, जो विचार-शून्य एकेन्द्रियादि जीवों तथा ज्ञानविकल जीवों में पाया जाता है। १. (क) दसविहे मिच्छत्ते प. सं.-अधम्मे धम्मसण्णा, धम्मे अधम्मसण्णा, उम्मग्गे मग्गसण्णा, मग्गे उम्मग्गसण्णा, अजीवेसु जीवसण्णा, जीवेसु अजीवसण्णा, असाहुसु साहुसण्णा, साहुसु असाहुसण्णा, अमुत्तेसु मुत्तसण्णा, मुत्तेसु अमुत्तसण्णा । -स्थानांग. १0, सू. ७३४ (ख) कर्मग्रन्थ, विवेचन प्रथम भाग (मरुधरकेसरी) से, पृ. ८० (ग) कर्मप्रकृति से, पृ. २५ २. आभिग्गहियमणाभिग्गहं च, तह अभिनिवेसि चेव । संसइयमणाभोग, मिच्छत्त पंचहा एअं ॥ -धर्मसंग्रह २ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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