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________________ ३०२ कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) स्वीकारता नहीं, अपने मिथ्याग्रह को प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाकर उसे छोड़ता नहीं। ये सब अशुद्ध दर्शन-मोहनीय रूप मिथ्यात्वमोहनीय के दाँवपेच हैं। सचमुच, मिथ्यात्व-मोहनीय कर्म के उदय से आत्मा को जीवादि तत्त्वों के स्वरूप, लक्षण तथा जिन (वीतराग देव)-प्ररूपित सद्धर्म के प्रति श्रद्धा नहीं होती। मिथ्यात्वमोहनीय के प्रभाव से जीव सर्वज्ञ आप्त वीतरागदेव के द्वारा उपदिष्ट या प्ररूपित पथ पर न चल कर, विपरीत पथ का अनुसरण करता है। उसे इस कर्म के प्रभाव से अदेव में देवबुद्धि, अधर्म में धर्मबुद्धि और कुगुरु में गुरुबुद्धि होती है। कभी-कभी वह मूढ़तावश सच्चे देव, गुरु, धर्म और तत्व के प्रति द्वेष, द्रोह और प्रबल विरोध करने लगता है, वह स्वयं तो सन्मार्ग से विमुख रहता ही है, दूसरों को भी सन्मार्ग से विमुख करने का प्रयास करता है, सन्मार्ग पर चलने वालों को उलटे-सीधे तर्क देकर चलने से रोक देता है। मिथ्यात्यमोहग्रस्त जीव की हित में अहित बुद्धि और अहित में हित बुद्धि होती है। जिस प्रकार रोगी को पथ्यकारक वस्तुएँ अच्छी नहीं लगतीं, कुपथ्य की वस्तुएँ ही रुचिकर प्रतीत होती हैं, वैसे ही जब मिथ्यात्व-मोह का उदय होता है, तब सद्देव, सद्गुरु, सद्धर्म और सत्तत्त्व रुचिकर नहीं लगते, वह मिथ्याभिनिवेशवश उलटा ही मार्ग अपनाता है।२ मिथ्यात्व : स्वरूप और दस प्रकार मिथ्यात्व-मोहनीय कर्म में मिथ्यात्व की प्रबलता होती है। मिथ्यात्व का अर्थ ही है-जीव द्वारा पदार्थ के प्रति उलटे रूप में श्रद्धा-रुचि होना, उसके प्रति यथार्थ रूप में न तो श्रद्धा करना, न ही रुचि रखना। मिथ्यात्व के दस भेदों के लक्षण और स्वरूप को समझने से स्वयमेव ज्ञात हो जाता है, कि मिथ्यात्व एक रूप वाला नहीं है, अनेक रूप का है। 'स्थानांगसूत्र' में मिथ्यात्व के दस प्रकार इस क्रम से दिये गये हैं (१) अधर्म को धर्म समझना-हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रहवृत्ति आदि तथा जुआ, तस्करी, मद्यपान, शिकार, मांसाहार, वेश्यागमन तथा परस्त्रीगमन तथा आगजनी आदि अधर्म-पापयुक्त कार्यों को धर्म समझना, पशुबलि, नरबलि, मारण-उच्चाटन-मोहन आदि हिंसोत्तेजक यंत्र-मंत्र-तंत्र, तथा कर्मबन्ध कारक कार्यों को धर्म समझना। जिन कृत्यों या विचारों से जीव की अधोगति या दुर्गति होती हो, ऐसे अधर्मयुक्त कार्यों को अन्धविश्वास, कुरूढ़ि और कुपरम्परावश धर्म समझना। -योगशास्त्र २/३ १. अदेवे देवबुद्धिर्या गुरुधीरगुरौ च या। ___अधर्मे धर्मबुद्धिश्च मिथ्यात्वं तद्विपर्ययात् ॥ १. (क) कर्मप्रकृति से भावशिग्रहण, पृ. २४ । (ख) मिच्छं जिणधम्म-विवरीयं (ग) ज्ञान का अमृत से भावांशग्रहण, पृ. २८७ (घ) जैनदृष्टिए कर्म से भावांशग्रहण, पृ. ६३ -कर्मग्रन्थ प्रथम १६ . Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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