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उत्तर- प्रकृतिबन्ध : प्रकार, स्वभाव और कारण - ३
३०१ के एकस्थानक, द्विस्थानक, त्रिस्थानक और चतुःस्थानक, यों चार प्रकार होते हैं। स्वाभाविक रस को एकस्थानक कहते हैं। उसी रस के स्वाद में तीव्रता लाने के लिए अग्नि पर तपाकर उसका आधा भाग जला दिया जाता है तो शेष बचा हुआ आधा भाग द्वि-स्थानक कहलाएगा। इसी प्रकार स्वाभाविक रस के तीन भाग करके दो भाग जला दिये जाएँ तो अवशिष्ट एक भाग को त्रिस्थानक और उक्त रस के बराबर चार भाग करके तीन भाग जला दिये जाते हैं तो शेष रहे एक भाग को चतुःस्थानक कहा जाएगा। अर्थात् चतुःस्थानक को चौथाई, त्रिस्थानक को तिहाई, द्विस्थानक को आधा, और एकस्थानक को स्वाभाविक कह सकते हैं। उदाहरणार्थ- नीम या ईख का एक-एक किलो रस लिया जाए उन-उनका मूल रस स्वाभाविक एकस्थानक कहलाएगा। किन्तु इसी एक किलो रस को अग्नि से उबालकर आधा कर लिया जाए तो उसे द्विस्थानक और दो भाग कम करके एक भाग शेष रखें तो त्रिस्थानक और चतुर्थांश शेष रखा जाएगा तो चतुःस्थानक कहा जाएगा। दर्शनमोहनीय कर्म की शुभ-अशुभ फल देने वाली तीव्रतम शक्ति को चतुःस्थानक, तीव्रतर शक्ति को त्रिस्थानक, तीव्रशक्ति को . द्विस्थानक और मन्दशक्ति को एकस्थानक समझना चाहिए। इन चार प्रकारों में द्वि-त्रिचतुः स्थानक रसशक्ति (फलदानशक्ति) को सर्वघाती कहते हैं।
मिथ्यात्वमोहनीय में चतुःस्थानक, त्रिस्थानक और द्विस्थानक, यों तीनों प्रकार की सर्वघाती रसशक्ति होती है। मिश्र-मोहनीय कर्म में द्विस्थानक और सम्यक्त्व - मोहनीय में एकस्थानक रसशक्ति होती है। इस कारण सम्यक्त्व - मोहनीय कर्मप्रकृति देशघाती कहलाती है। सर्वघाती प्रकृति के सभी स्पर्द्धक सर्वघाती हैं, किन्तु देशघाती के कुछ स्पर्द्धक सर्वघाती और कुछ देशघाती होते हैं। जो स्पर्द्धक त्रिस्थानक और चतुःस्थानक रस वाले हैं, वे नियमतः सर्वघाती होते हैं और जो स्पर्द्धक द्विस्थानक रस वाले हैं, वे देशघाती भी होते हैं, और सर्वघाती भी, किन्तु एकस्थानक रस वाले स्पर्द्धक देशघाती होते हैं।
मिथ्यात्व - मोहनीय : स्वभाव और कार्य दर्शनमोहनीय कर्म के तीन भेदों में मिथ्यात्व - मोहनीय कर्म सबसे प्रबल है। यह आत्मा के दर्शन (सम्यक्त्व) गुण की घात करता है। मिथ्यात्व - मोहनीय वह है - 'जिस कर्म के उदय से आत्मा को जीवादि तत्त्वों के यथार्थ स्वरूप के प्रति रुचि ही न हो । ' वह अशुद्ध दर्शन - मोहनीय है। इसके प्रभाव से जीव को सच्चे तत्त्व, देव और गुरु के प्रति शंका-कुशंका होती है। मिथ्या अभिनिवेश होता है, झूठा पूर्वाग्रह पकड़े रखता है, स्वयं को सच्ची बात सूझती है, फिर भी स्वत्व - मोह - कालमोह -वश सच्ची बात को
१. (क) कर्मप्रकृति ( आ. जयन्तसेनसूरिजी म.) से, पृ. २६-२७ (ख) निंबुच्छुरसो सहजो, दु-ति-चउभाग- कड्टि-इक भागतो । इग ठणाई असुहो असुहाण, सुहो सुहाणं तु ॥
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- पंचम कर्मग्रन्थ ६५
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