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________________ २९४ कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) पर प्रीति दूसरे पर अप्रीति, एक पर मनोज्ञता और दूसरे पदार्थ पर अमनोज्ञता, एक पर इष्ट की, दूसरे पर अनिष्ट की छाप मोहनीय कर्म के वशीभूत होकर ही जीव लगाता है। इसलिए सांसारिक सुख-दुःखों के करेंट का पावर हाउस मोहनीय कर्म है। इसीलिए मोहकर्मवश कामवासना में माने हुए सुख के लिए कहा गया है'खणमित्तसुक्खा बहुकालदुक्खा.'१ क्षणमात्र का सुख चिरकाल तक दुःखों का सृजन करता है। राग-द्वेषादि भावकों का मूल स्रोत मोहकर्म है। राग-द्वेषादि विकार मोहनीय कर्म के ही अंग हैं। ज्ञान और दर्शन को विकृत करने वाला मोहकर्म ही है। ज्ञानावरण एवं दर्शनावरण से ज्ञान और दर्शन की कमी-हीनता से जीव को इतनी हानि नहीं होती, इसी प्रकार अन्तरायकर्म से आत्मा की शक्ति कुण्ठित हो जाने पर भी विशेष बाधा नहीं आती, क्योंकि इतना ज्ञान, दर्शन और आत्मबल (वीय) फिर भी जीव में बना रहता है, जिनसे वह अपना लौकिक और पारमार्थिक प्रयोजन सिद्ध कर सके। दूसरी बात यह है कि आत्मा की उक्त तीनों शक्तियां ज्ञानांवरणीयादि तीन कर्मों के प्रभाव से कम तो अवश्य हो जाती हैं, किन्तु विकृत नहीं होती। कर्मबन्धन के मूल बीज तो राग-द्वेष हैं, जो कषायरूप मोहकर्म के ही पुत्र हैं, वे हरी झंडी दिखाते हैं, तभी कर्म का स्थितिबन्ध और अनुभाग बन्ध होता है। अन्यथा, कर्म आते अवश्य है, लेकिन राग-द्वेष और कषाय के न रहने पर केवल सातावेदनीय का प्रदेशोदय होकर दूसरे क्षण ही निर्जरण हो जाता है। लेकिन जब उसके साथ मोह के अंगभूत राग-द्वेष या कषाय जुड़ जाते हैं, तब वे ज्ञानादि को विकृत करके आत्मा को उन अन्तरंग तत्वों के दर्शन नहीं करने देते।२ मोहनीय कर्म क्या करता है ? मोहनीय कर्म के उदय से आत्मा मूढ़ बनकर अपने हिताहित का, कर्तव्यअकर्तव्य का, सत्य-असत्य का, कल्याण-अकल्याण का भान भूल जाता है। यदि हिताहित आदि को कदाचित् जान-समझ भी जाय, तो भी इस कर्म के उदय से आचरण नहीं कर पाता। जैसे-मद्यपान करके मनुष्य भले-बुरे का विवेक खो बैठता है, परवश होकर अपने हिताहित को नहीं समझता, वैसे ही मोहनीय कर्म के प्रभाव से जीव सत्-असत् के विवेक से रहित होकर परवश हो जाता है। मोहनीय कर्म आत्मा को स्वभाव का भान नहीं होने देता, वह अनाकुलतारूप आनन्द (आत्मसुख) तथा स्वरूपरमण रूप चारित्र को भी कुण्ठित, दूषित और विकृत कर डालता है, इसी कारण मनुष्य राग, द्वेष, काम, क्रोधादि कषाय एवं नोकषाय आदि विकारों मेंविभावों में उलझा रहता है, इसी वैषयिक सुखाभास को वास्तविक सुख मानता है। १. उत्तराध्ययन सूत्र २. कर्म-सिद्धान्त (ब्र. जिनेन्द्रवर्णी) से भावशिग्रहण, पृ. ६० ३. (क) कर्मप्रकृति से भावांशग्रहण, पृ. १९ (ख) मज्ज व मोहणिये। -कर्मग्रन्थ भा.१, गा. १३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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