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________________ उत्तर- प्रकृतिबन्ध : प्रकार, स्वरूप और कारण - २ २८९ कट जाने पर कुछ ही देर बाद दुःख का अनुभव होता है, उसी प्रकार असातावेदनीय कर्म के उदय से दुःख का अनुभव भी होता है। यही कारण है कि कर्मशास्त्रमर्मज्ञों ने प्राणियों की असंख्य अनुभवधारा होने से असंख्य भेदों की संभावना होने पर भी वेदनीय कर्म को सातावेदनीय और असातावेदनीय, इन दो उत्तरप्रकृतियों में समाविष्ट कर दिया है। सातावेदनीय कर्म के उदय से जीव को शरीर और मन से सम्बन्धित सुखानुभव होता है, जबकि असातावेदनीय कर्म के उदय से जीव को नरकादि गतियों में अनेक प्रकार की कायिक, वाचिक, मानसिक तथा जन्म, जरा, मृत्यु, प्रिय-वियोग, अप्रियसंयोग, आधि, व्याधि वध, बन्धन, चिंता आदि से उत्पन्न दुःख का वेदनअनुभव होता है।' मुख्यतया सातावेदनीय का सुख वस्तुनिष्ठ या वैषयिक या पौद्गलिक होता है, जिसका अधिकांश अनुभव देवगति और मनुष्यगति में होता है, जबकि असातावेदनीय के उदय से प्राप्त दुःख का अनुभव अधिकांशतः नरकगति और तिर्यञ्चगति में होता है। वेदनीय कर्म का सारा सुख-दुःखात्मक व्यवहार मुख्यतया बहिर्मुखी होता है । सातावेदनीय को पुण्यप्रकृति में और असातावेदनीय को पाप प्रकृति में माना गया है। २ अतः वेदनीय कर्म का परिष्कृत लक्षण है - मिथ्यात्व आदि प्रत्ययों के वश, कर्मरूप पर्याय से परिणत और जीव के साथ सम्बद्ध जो पुद्गलस्कन्ध जीव के सुख और दुःख के अनुभवन-वेदन में निमित्त होता है, उसे वेदनीय कर्म कहते हैं। यदि सातावेदनीय का उदय होता है तो जीव को शरीर और शरीर से सम्बन्धित सजीव और निर्जीव पदार्थों या शुभ, इष्ट, मनोवांछित भावों के इष्टसंयोग से सुख का वेदन - अनुभव होता है, और असातावेदनीय का उदय होने पर इन्हीं पदार्थों या भावों अनिष्ट - मनःप्रतिकूल संयोग के कारण दुःख का वेदन- अनुभव होता है। परन्तु एक बात अवश्य समझ लेनी चाहिए कि सुख का मन्तव्य गति, स्थान, संयोग और परिस्थिति के अनुसार जीवों में पृथक्-पृथक् प्रकार का होता है। एक प्राणी एक वस्तु में सुख का अनुभव करता है, जबकि दूसरा प्राणी उसी की प्राप्ति में दुःखानुभव एवं अरुचि महसूस करता है। सूअर को विष्टा खाने में सुखानुभव होता है, जबकि मनुष्य को उसके देखते ही अरुचि और घृणा होती है, खाने को कहें तो दुःखानुभव होता है। इसी प्रकार सर्दी के मौसम में ऊनी वस्त्रों के धारण करने में सुखानुभव होता है, गर्मी के मौसम में उनसे दुःखानुभव। एक शासक को राजवैभव में सुखानुभव होता है, परन्तु त्यागी साधु की राजवैभव में कोई रुचि ही नहीं होती, जबरन देने पर दुःखानुभव होगा। इसी कारण एक व्यक्ति को स्वेच्छा से दीर्घतपस्या करने में, त्याग १. (क) गोम्मटसार (क.) गा. २१ (ख) सर्वार्थसिद्धि ८/८ (ग) तत्वार्थ वार्तिक ८/८/१-२ २. जैनदृष्टिए कर्म से भावांश ग्रहण, पृष्ठ ११९ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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