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________________ २९० कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) करने में सुखानुभव होता है, दूसरे व्यक्ति को दीर्घतपस्या या अमुक प्रिय वस्तु का त्याग करने में दुःखानुभव होता है। भोगी को पंचेन्द्रिय विषयभोगों में सुखानुभव होता है, रोगी को उन्हीं विषयभोगों में दुःखानुभव। इसलिए सातावेदनीय और असातावेदनीय कर्म उदय और पूर्वकाल में कृतबन्ध का चिह्न प्राणी की अनुभूति के आधार पर समझना चाहिए। कई लोग कहते हैं- धन, पुत्र, स्त्री, मित्र, स्वर्ण तथा साधनों की प्राप्ति में सुख का अनुभव होता है, वह सातावेदनीय कर्म के उदय से प्राप्त हुआ है, परन्तु अगर वह चोरी या आयकर चोरी से प्राप्त धन है, पुत्र अगर कुपुत्र एवं उद्दण्ड है, स्त्री अगर कर्कशा है, स्वर्णप्राप्ति अन्याय-अत्याचार से हुई है, और बंगला, कोठी अगर भूतहा है, कार अगर दुर्घटना का कारण बनी है, तो क्या ऐसी स्थिति में भी वे धनादि सुख के कारण होंगे? या उन्हें उसके सातावेदनीय का उदय समझा जाएगा ? निष्कर्ष यह है कि कैसे भी अनुकूल या प्रतिकूल संयोगों में, अथवा इष्ट-अनिष्ट संयोगों में, परिस्थिति में अगर सुख का वेदन होता है तो पूर्वबद्ध सातावेदनीय का उदय और यदि दुःख का वेदन होता है तो पूर्वबद्ध असातावेदनीय का उदय समझना चाहिए। कोई भी सजीव-निर्जीव वस्तु या भाव अपने-आप में सुख-दुःख का कारण नहीं, व्यक्ति के शुभाशुभ वेदन के भाव ही कारण हैं। ' वेदनीय कर्म और उसमें भी उसकी मुख्य दो उत्तरप्रकृतियों के बन्ध के क्या-क्या कारण हैं? उन्हें कैसे-कैसे भोगा जाता है ? वेदनीयद्वय का अनुभाव स्वतः या परतः कैसे-कैसे होता है ? इत्यादि सब तथ्यों का स्पष्टीकरण हम इससे पूर्व के लेख में कर आए हैं। यहाँ तो सिर्फ संकेत कर देते हैं। सातावेदनीय बन्ध के १० कारण हैं- (१) प्राणानुकम्पा, (२) भूतानुकम्पा, (३) जीवानुकम्पा, (४) सत्त्वानुकम्पा, (५) प्राणादि को दुःख न देना, (६) प्राणादि को शोक न पहुँचाना, (७) प्राणादि को ताप न पहुँचाना, (८) प्राणादि को आक्रन्दित न करना ( विलाप न कराना, न रुलाना), (९) प्राणादि का वध न करना, और (90) प्राणादि को परिताप न पहुँचाना। इसके विपरीत असातावेदनीय कर्मबन्ध के १२ कारण हैं - (9) प्राण, भूत, जीव और सत्त्व को दुःख देना, (२) प्राणादि को शोक कराना, (३) प्राणादि को संतप्त करना, (४) इनसे आक्रन्दन ( रुदनादि ) कराना, (५) इनको मारना पीटना (६) इनको परिताप देना, (७) इनको बहुत दुःख देना, (८) इनको अत्यन्त शोकग्रस्त करना, (९) इनको अतिसंतप्त करना, (90) इनको बहुत रुलाना, (११) इनको बहुत मारना पीटना और ( १२ ) इनको अत्यधिक परिताप पहुँचाना। २ १. (क) जैन सिद्धान्त ( सिद्धान्ताचार्य पं. कैलाशचन्द्रजी) से पृ. १00 (ख) जैनदृष्टिए कर्म से भावांशग्रहण, पृ. ११८ २. (क) साता - असातावेदनीय कर्मबन्ध के कारणों, अनुभावों आदि के विषय में देखें, इसी खण्ड का लेख नं. १५ (ख) ज्ञान का अमृत से सारांश ग्रहण, पृ. २७० से २७५ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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