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________________ २८८ कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) भी निद्रा में निमित्त बन जाते हैं। जैसे-आकाश बादलों की घटा से घिर गया हो, वर्षा की झड़ी लगी हो, या अत्यधिक ठंड का प्रकोप हो, तब ये कारण निद्रा में सहायक हो जाते हैं। इस प्रकार के तीनों कारण परतः फलानुभाव हैं। स्वतः अनुभाव की रूपरेखा इस प्रकार है-दर्शनावरणीय कर्मपुद्गलों के उदय से जीव दर्शन योग्य वस्तु देख नहीं पाता, सामान्य बोध नहीं कर पाता, नेत्रादि द्वारा सामान्य बोध करने की इच्छा होते हुए भी दर्शन नहीं कर पाता, पूर्वदृष्ट भी विस्मृत हो जाता है। इस प्रकार दर्शनावरणीय कर्म की उत्तरप्रकृतियों का विश्लेषण समझना चाहिए। वेदनीय कर्म : उत्तर प्रकृतियाँ, स्वरूप और बन्धकारण वेदनीय कर्म अष्टविध कर्मों में तीसरा कर्म है। सांसारिक प्राणियों का जीवन न ही एकान्त सुखभोगमय है और न एकान्त दुःख-वेदनरूप। वेदनीय कर्म सांसारिक सुख-दुःखों का वेदन-अनुभव कराता है। सामान्यरूप से 'वेदनीय' का शब्दशः व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ होता है जिसके द्वारा वेदन अर्थात् अनुभव होता है। 'सर्वार्थसिद्धि' में इसका लक्षण किया गया है-वेदनीय कर्म की प्रकृति सुख-दुःख का संवेदन कराना है। 'धवला' में भी 'जीव' के सुख-दुःख के उत्पादक कर्म को ‘वेदनीय कर्म' कहा है। वेदनीय कर्म से सुख और दुःख का जो अनुभव होता है, वह सांसारिक, पौद्गलिक, भौतिक या पार्थिव होता है। वह क्षणिक होता है। शाश्वत नहीं। आत्मा के अक्षय, अनन्त, अव्याबाध, मोक्षरूप सच्चिदानन्दस्वरूप आत्मिक सुख से उसका कोई वास्ता नहीं होता। यह वैषयिक सुख-प्रधान सुख है, सुखाभास है, मन का माना हुआ सुख है, जिसमें दुःख मिश्रित है। इसलिए यह सुख-दुःख का लक्षण प्राणियों के मन से विशेष सम्बन्धित है-'अनुकूल-वेदनीयं सुखम्, प्रतिकूल-वेदनीयं दुःखम्' अर्थात्-जिस मनोऽनुकूल वस्तु की प्राप्ति से अनुकूल वेदन-अनुभव किया जाए वह सुख है, और जिससे प्रतिकूल वेदन किया जाए, वह दुःख है। इसीलिए वेदनीय कर्म की तुलना शहद लिपटी हुई तलवार से की गई है। जिस प्रकार तलवार की धार पर लगे हुए, शहद को चाटने से सुख का अनुभव होता है, उसी प्रकार सातावेदनीय कर्म के उदय, से सुख का अनुभव होता है, परन्तु साथ ही, मधुलिप्त तलवार के चाटने से जिह्वा के १. ज्ञान का अमृत से, पृ. २६९ २. (क) सर्वार्थसिद्धि (आ. पूज्यपाद) से ८/३, पृ. ३७९ (ख) धवला पु. १ ख. ५, भा. ५, सू. १९ ३. (क) जैनदृष्टिए कर्म से भावांश ग्रहण पृ. ११८ (ख) मनुस्मृति Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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