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________________ उत्तर-प्रकृतिबन्ध : प्रकार, स्वरूप और कारण-२ २८७ दर्शनावरणीय कर्म का फल-भोग किस प्रकार? दर्शनावरणीय कर्म का अनुभाव (फल का भुगतान) वैसे तो ज्ञानावरणीय कर्म के समान ही है, परन्तु इसके नौ भेद हैं, तथा इनमें चक्षुदर्शनावरणीय मुख्य व प्रथम है। अतः चक्षु-अचक्षु (श्रोत्रेन्द्रिय, चक्षुइन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय, स्पर्शेन्द्रिय और मन) इन ६ इन्द्रिय-नोइन्द्रियों से घट-पटादि पदार्थों का जो दर्शन-सामान्य बोध पैदा होता है, दर्शनावरणीय कर्म उदय में आने पर वह शक्ति कुण्ठित हो जाती है। जो कार्य जिस करण को करना चाहिए, वह नहीं कर पाता। चक्षु-अचक्षु दर्शनावरणीय कर्म उसे आच्छादित-आवृत कर देता है। चक्षुदर्शनावरणीय कर्म के उदय से एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय और त्रीन्द्रिय जीवों को जन्म से ही आँखें प्राप्त नहीं होतीं। इसी कर्म के उदय में आने पर चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय जीवों की आँखें या तो नष्ट हो जाती हैं, या अत्यन्त कम दिखने लगता है, मोतियाबिन्दु उतर आता है या रतौंधी आदि नेत्ररोग हो जाते हैं। शेष इन्द्रियों और मन वाले जीवों की अचक्षुदर्शनावरणीय के उदय से वे इन्द्रियाँ या तो नष्ट हो जाती हैं, अथवा वे मूक, बधिर, अपंग, आदि हो जाते हैं। अथवा उनकी इन्द्रियों से उन्हें सामान्य बोध भी स्पष्ट नहीं होता। या तो उन्हें जन्म से ही मन नहीं मिलता, या मन मिलता है तो भी मनन-शक्ति, विचारशक्ति, स्मरणशक्ति आदि भी अतीव मन्द हो जाती है, अचक्षुदर्शनावरणीय कर्म के उदय से। इसके अतिरिक्त निद्रादि दर्शनावरणीय कर्म के उदय में आने पर जीव को निद्रा, निद्रा-निद्रा, प्रचला, प्रचला-प्रचला और स्त्यानगृद्धि (थीणद्धी) ये पांच प्रकार की निद्राओं में से स्व-स्व-कर्मानुसार प्राप्त निद्रा आती है, जिसके कारण वस्तु का सामान्य बोध भी निद्रादि दशा में उन्हें नहीं हो पाता। इस प्रकार संसारी जीव को दर्शनावरणीय कर्म का नवविध फलभोग पूर्वोक्त प्रकार करना पड़ता है।' दर्शनावरणीय कर्मफलानुभाव स्वतः या परतः ज्ञानावरणीय कर्म के फलानुभाव की तरह दर्शनावरणीय कर्म का नवविध (फलभोग) भी स्वतः और परतः दोनों प्रकार से होता है। जब परतः फलानुभाव होता है, तब पुद्गल, पुद्गल-परिणाम एवं स्वाभाविक पुद्गल-परिणाम उसमें सहायक निमित्त बन जाते हैं। जैसे-ज्ञानावरणीय कर्मफलानुभाव में दूसरे के द्वारा पत्थर आदि के प्रहार से आँख आदि इन्द्रियों पर चोट आने से नेत्रादि द्वारा ज्ञानशक्ति का नाश या ह्रास हो जाता है, उसी प्रकार दर्शनशक्ति का भी ह्रास या नाश समझ लेना चाहिए। पुद्गलों के परिणमन से भी दर्शनशक्ति का ह्रास या नाश होता है. जैसे भैंस के दही आदि के सेवन से निद्रा की अधिकता होना, मदिरा आदि के पीने से मन की मननशक्ति, सामान्य दर्शनशक्ति दब जाती है। इसी प्रकार स्वाभाविक पुद्गलपरिणाम १. (क) ज्ञान का अमृत से भावांश ग्रहण, पृ. २६६ (ख) प्रज्ञापना सूत्र पद २३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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