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________________ २८६ कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) वाला कर्म निद्रा (आदि) दर्शनावरणीय कर्म होता है, और (२) निद्रा (आदि) को उत्पन्न करने वाला कर्म भी निद्रा (आदि) दर्शनावरणीय कर्म कहलाएगा। प्रथम अर्थ में निद्रा (आदि पांच) दर्शनशक्ति की घातिका प्रमाणित होती है। क्योंकि सुप्त अवस्था में व्यक्ति दिखाई देने वाली वस्तुओं भावों या पदार्थों को देख (सामान्यरूप से जान ) नहीं सकता। दूसरे अर्थ में दर्शनावरणीय कर्म निद्रा (आदि) का जनक सिद्ध होता है। कर्म-परमाणुओं की विचित्रता के कारण दर्शनशक्ति को आवृत करने वाले कर्मपरमाणु भी निद्रा, निद्रानिद्रा आदि निद्राओं की उत्पत्ति के कारण (जनक) बन जाते हैं। क्योंकि इस दूसरे अर्थ के आधार पर ही - “ दर्शनावरणीय कर्म के प्रभाव से प्राणियों को निद्रा आती है।" ऐसे वाक्यों का प्रयोग किया जा सकता है, अन्यथा नहीं। निद्रा की तरह ही निद्रा-निद्रा- दर्शनावरणीय, प्रचला दर्शनावरणीय आदि पदों के भी दो-दो अर्थ समझ लेने चाहिए| तत्वं केवलिगम्यम् । ' दर्शनावरणीय कर्म : देशघाती भी, सर्वघाती भी दर्शनावरणीय कर्म भी देशघाती और सर्वघाती रूप में दो प्रकार का है। दर्शनावरणीय कर्म की नौ उत्तरप्रकृतियों में चक्षुदर्शनावरणीय, अचक्षुदर्शनावरणीय और अवधिदर्शनावरणीय कर्म देशघाती हैं, तथा शेष रही छह प्रकृतियाँ सर्वघाती हैं। सर्वघाती प्रकृतियों में केवलदर्शनावरणीय कर्म मुख्य है। २ दर्शनावरणीय कर्मबन्ध के प्रमुख कारण तत्त्वार्थसूत्र, व्याख्याप्रज्ञप्ति आदि सूत्रों में ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणीय कर्म दोनों के बन्ध के समान कारण ६-६ बताए हैं। जिनकी चर्चा हम इसी खण्ड के पूर्व लेख में कर चुके हैं। फिर भी कर्म विज्ञानमनीषी पं. ज्ञानमुनिजी के अनुसार दर्शनावरणीय कर्मबन्ध के ६ कारण प्रस्तुत कर रहे हैं - (१) दर्शन की आशातनाबेअदबी या अपमान करना, (२) दर्शनशक्ति को प्राप्त करने वाले जीवों से ईर्ष्या, द्वेष, वैरविरोध करना, उनके दोष निकालना, (३) दर्शनगुण का स्वामी होने पर भी उसके अस्तित्व से इन्कार करना, दर्शनशक्ति को छिपाना, (४) दर्शन की प्राप्ति में विघ्न उपस्थित करना, (५) जिस व्यक्ति से दर्शनशक्ति प्राप्त की है, उनके नाम को छिपाना, और (६) दर्शन-शक्ति का दुरुपयोग करना । दर्शनावरणीय कर्मबन्ध के ये ६ कारण ज्ञानावरणीय कर्म को बांधने के समान ही हैं, जिनका विवेचन पिछले पृष्ठों में किया गया है । ३ १. (क) कर्मप्रकृति से पृ. १५ (ख) ज्ञान का अमृत से पृ. २६४-२६५ २. कर्मग्रन्थ प्रथम भाग विवेचन ( मरुधर केसरीजी) से ३. ज्ञान का अमृत से पृ. २६५ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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