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________________ उत्तर-प्रकृतिबन्ध : प्रकार, स्वरूप और कारण-२ २८५ अत्यन्त भयंकर है। इस निद्रा में मनुष्य (जाग्रत अवस्था में) दिन या रात में सोचे हुए कार्य को निद्रित अवस्था में ही कर डालता है। इस निद्रा के प्रभाव से रात्रि में सोया हुआ व्यक्ति निद्रित दशा में उठ खड़ा होता है। दूकान से बाहर गेहूँ की ५00 बोरियाँ पड़ी हों तो अकेला ही उठा कर अंदर रख देता है। कभी दुकान खोल कर माल को तितर-बितर कर डालता है। दुश्मन की हत्या भी कर डालता है। यह सब दुष्कृत्य करके वापस अपने स्थान पर आकर सो जाता है। कहते हैं-स्त्यानर्द्धि निद्रा का यदि वज्रऋषभनाराच संहनन वाले मनुष्य में उदय हो तो निद्रित दशा में वासुदेव का आधा बल आ जाता है। त्रिखण्डाधिपति वासुदेव हजारों व्यक्तियों को अकेला ही पछाड़ सकता है। ऐसे वासुदेव की आधी शक्ति (राक्षसी शक्ति) जिस मानव में आ जाती है, वह व्यक्ति अपने पर नियंत्रण खो बैठता है और इस भयंकर निद्रा के परवश बना हुआ वह प्राणी न करने योग्य दुष्कृत्य कर बैठता है। करता है, वह नींद ही नींद में। अगर इस निद्रा वाला व्यक्ति निद्रितदशा में ही मर जाए तो वह मर कर नरक गति का मेहमान बनता है। स्त्यान का अर्थ है-एकत्रित हुई बर्फ तरह जमी हुई, ऋद्धि यानी आत्मा की ऋद्धि-शक्ति या गृद्धि यानी मन की एकत्रित हुई विकृत इच्छाएँ। इसी कारण इसे स्त्यानर्द्धि या स्त्यानगद्धि कहते हैं। जिस कर्म के उदय से मनुष्य को ऐसी निद्रा आती है, उसे स्त्यानगृद्धि-दर्शनावरणीय कर्म कहते हैं। स्त्यानगृद्धि निद्रा की तीन परिभाषाएँ सर्वार्थसिद्धिकार ने प्रतिपादित की हैं-(१) जिस निद्रा के उदय से निद्रित अवस्था में विशेष बल प्रकट हो जाए; (२) अथवा जिसके उदय से जीव सुप्त अवस्था में रौद्रकर्म करता है। (३) जिस निद्रा में दिन में चिन्तित अर्थ और साधन-विषयक आकांक्षा का एकीकरण (संघातीकरण) हो जाए, उसे स्त्यानगृद्धि कहते निद्रादि दर्शनावरणीयपंचक के दो-दो अर्थ सम्भव . दर्शनावरणीय कर्म के निद्रा, निद्रा-निद्रा आदि पांच भेदों के शब्दों के अर्थों पर गम्भीरता से विचार करते हैं तो इन पांचों पदों के दो-दो अर्थ सम्पन्न हो सकते हैं(१) निद्रा (आदि) के कारण दर्शन (सामान्य बोध) का आवरण/आच्छादन करने प्रचला की बार-बार प्रवृति प्रचला-प्रचला है। सर्वार्थसिद्धि ८/७, पृ. ३८३। जिस कर्म के उदय से बैठा हुआ व्यक्ति सो जाता है, सिर धुनता है, लता के समान चारों ओर लोटता है, वह प्रचला-प्रचला कर्म है। -धवला १३/५/५ सू. ८५ १. (क) स्त्याने स्वप्ने यथा वीर्य-विशेष प्रादुर्भावः सा स्त्यानगृद्धिः। -सर्वार्थसिद्धि ८/७ (ख) दिण चिंति अत्थ करणी थीणद्धी। अद्धचक्कि अद्धबला। -कर्मग्रन्थ प्रथम गा.१० (ग) स्त्याने स्वप्ने गृद्धधति दीप्यते यदुदयादात्मा रौद्र बहुकर्म करोति सा स्त्यानगृद्धिः । -सर्वार्थसिद्धि ८/७ (घ) स्त्याना संघातीभूता गृद्धिर्दिन-चिन्तितार्थ-साधन-विषयाऽभिकाक्षा यस्यां सा स्त्यानगृद्धिः। -वही ८७ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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