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२८४ कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) उठे, ऐसी निद्रा' 'निद्रा' कहलाती है। जिस कर्म के उदय (प्रभाव) से ऐसे प्रकार की, दर्शन को रोकने वाली नींद आए, उसे निद्रा-दर्शनावरणीय कर्म कहते हैं। (२) निद्रा-निद्रा-जिस कर्म के उदय से ऐसी नींद आए कि सोये हुए मनुष्य को ऐसी पक्की नींद आ जाए कि सोने वाला बड़ी मुश्किल से जागे, उसे जगाने के लिए हाथ पकडकर हिलाना पड़े, जोर से चिल्लाना पड़े, दरवाजा जोर-जोर से खटखटाना पड़े, ऐसी नींद को निद्रा-निद्रा कहते हैं। यह निद्रा जिस कर्म के प्रभाव से आती है, उसे निद्रा-निद्रा-दर्शनावरणीय कर्म कहते हैं। (३) प्रचला-खड़े-खड़े या बैठे-बैठे ही नींद आ जाने को 'प्रचला' कहते हैं। किसी-किसी मनुष्य को इस प्रकार की नींद आती है। बैल, घोड़े आदि को भी खड़े-खड़े नींद लेते हम देखते हैं। जिस कर्म के उदय से जीव को ऐसी निद्रा आती है, उसे प्रचला-दर्शनावरणीय कर्म कहते हैं। (४) प्रचला-प्रचला-जो निद्रा चलते-फिरते आती है, उसे प्रचला-प्रचला कहते हैं। पश चलते-फिरते भी सो जाते हैं। जिस कर्म के प्रभाव से जीव को ऐसी निद्रा आती है, उसे प्रचला-प्रचला-दर्शनावरणीय कर्म कहते हैं।२ (५) स्त्यानर्द्धि या स्त्यानगृद्धि-यह निद्रा
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१. (क) सुह-पडिबोहा निद्दा, (ख) सुखेन जागरणं स्वप्तुर्यस्यां स्वप्नावस्थायां सा सुख-प्रतिबोधा ।
-कर्मग्रन्थ भा. १, गा. १० टीका (ग) जैनदृष्टिए कर्म से भावग्रहण, पृ. ११६ । पयलापयला चंकमओ।
-कर्मग्रन्थ प्रथम गा. १० (ख) कर्मप्रकृति से, पृ. १३-१४ (ग) जैनदृष्टिए कर्म से, पृ. ११६-११७ (घ) ज्ञान का अमृत से पृ. २६३ (ङ) दिगम्बर परम्परा में निद्रादि पंचक के विभिन्न अर्थ किये, गए हैं-मद, खेद और परिश्रमजन्य थकावट को दूर करने के लिए नींद लेना निद्रा है।
-सर्वार्थसिद्धि ८/७ पृ. ३६३ निद्रा कर्म के उदय से जीव हल्की नींद सोता है, उठाये जाने पर जल्दी उठ जाता है और हल्की आवाज करने पर सचेत हो जाता है; निद्रावस्था में गिरता हुआ व्यक्ति अपने आपको संभाल लेता है, थोड़ा-थोड़ा कांपता है और सावधान होकर सोता है।
-धवला ६/१/९-११/सू. १६ निद्रा के उदय से चलता-चलता मनुष्य खड़ा हो जाता है, और खड़ा बैठ जाता है अथवा गिर जाता है।
-गोम्मटसार(क) गा.२४ निद्रा की अधिक प्रवृत्ति का होना निद्रा-निद्रा है। सर्वार्थसिद्धि ८/७/३८३; इस (निद्रानिद्रा) कर्म उदय से जीव वृक्ष के शिखर पर, विषम भूमि पर अथवा किसी नो प्रदेश पर 'घुर-घुर' आवाज करता हुआ अतिनिर्भय होकर गाढ़ी निद्रा में सोता है। दूसरों के द्वारा उठाये जाने पर भी नहीं उठता है।-६/१/९-११/सू. १६। निद्रानिद्रा कर्म के उदय से जीव सोने में सावधान रहता है। लेकिन नेत्र खोलने में सार्थक नहीं होता।
__ -गोम्मटसार गा. २४ जिस कर्म के उदय से आधे सोते हुए व्यक्ति का सिर थोड़ा-थोड़ा हिलता रहता है, उसे प्रचला कहते हैं।-धवला १/३/५ सू. ७५; प्रचला के उदय से जीव किंचित् नेत्र को खोल कर सोता है। सोता हुआ कुछ जागता रहता है, बार-बार मंद-मंद सोता है।
-गोम्मटसार (क) २५
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