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________________ २७८ कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) ज्ञान का पूर्ण अभाव नहीं होगा। इसीलिए तो इसे ज्ञानावरण कहा है।' फिर भी एक बात ध्यान में रखनी है, ज्ञान पर चाहे जितने आवरण आ जाएँ, फिर भी अक्षर का अनन्तवाँ भाग ज्ञान तो नित्य उद्घाटित ही रहता है, इसीलिए तो इसे ज्ञानावरण कहा जाता है, ज्ञान-विनाशक नहीं। पिटारे में गाढ़ अन्धकार हो, फिर भी छिद्र में से जरा प्रकाश तो आता ही है। जैसे कंबल के छिद्र में से सूक्ष्म प्रकाश तो आता ही है। इसी प्रकार अतिगाढ़ अज्ञान में भी थोड़ा-सा ज्ञान का प्रकाश तो प्रत्येक चेतन के लिए खुला रहता है। दूसरी बात यह है कि ज्ञान पर आवरण चाहे जितने गाढ़ हों या मंद, परन्तु उसी समय अंदर जाज्वल्यमान ज्ञानरूपी सूर्य तो जगमगा रहा है। प्रत्येक आत्मा सत्ता की दृष्टि से अनन्तज्ञान से युक्त है, स्वयं ज्ञानमय है, ज्ञानगुण वाला है, ज्ञान ही आत्मा है। इसलिए ज्ञान को कहीं बाहर से लाने या पाने हेतु जाना नहीं पड़ता, वह तो अंदर भरा ही हुआ है। इस पर जो आवरण-आच्छादन पड़े हुए हैं, वे हटाने हैं और यथोचित प्रयास से उन्हें दूर करना शक्य है। वास्तव में देखा जाए तो ज्ञान बाहर से सीखने-पढ़ने या प्राप्त करने जाना नहीं पड़ता, वह तो आत्मा में ही पड़ा है। उस पर पड़े हुए आवरणों को हटा कर इसे प्रकट करना है। अंग्रेजी में जो एजूकेशन ("Education') शब्द है, उसका व्युत्पत्ति-मूलक अर्थ है-E=out, and duco=lead; अर्थात्-अंदर से बाहर निकालना। अर्थात-ज्ञान जो अंदर में पड़ा है,-सुषुप्त है, उसे जागृत करके बाहर प्रकट करना है। इससे ज्ञान की स्वयं की महत्ता और आत्मा के साथ उसकी तादाम्यता समझी जा सकती है। इस प्रकार ज्ञानावरणीय कर्म की उत्तरप्रकृतियों से सम्बन्धित विस्तृत चर्चा की है। वास्तव में, जितने भी ज्ञान के प्रकार हैं, और उनमें जितनी-जितनी तरतमता है, उतने ही उसके आवरण हैं। ज्ञान अपने आप में आत्मस्वरूप है, जबकि आवरण कार्मिक हैं, पौद्गलिक हैं, आवारक हैं। १. (क) नाणावरणिज्जे कम्मे दुविहे प. त.-देसनाणावरणिज्जे चेव सव्वनाणावरणिज्जे चेव । -स्थानांग २/४/१०५ (ख) वही, २/४/१०५ टीका। (ग) कर्मवाद : पर्यवेक्षण (आचार्य देवेन्द्रमुनि) से, पृष्ठ ६७ (घ) जैनदृष्टिए कर्म से भावशिग्रहण, पृ. १०९ . २. (क) सव्वजीवाणं पि य णं अक्खरस्स अणंतभागो णिच्चुग्याडिओ हवई । जइ पुण सोवि आवरिज्जा तेणं जीवो अजीवत्त पावेज्जा ॥ (ख) जैनदृष्टिए कर्म (डॉ. मो. गि. कापड़िया) से, पृ. ११० Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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