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उत्तर-प्रकृतिबन्ध : प्रकार, स्वरूप और कारण-१ २७७ पुद्गल-परिणाम की अपेक्षा से प्राप्त फल सापेक्ष यानी परतः है। कोई व्यक्ति किसी को.चोट पहुँचाने के लिए मस्तक पर पत्थर, ढेले या लाठी से प्रहार करता है, जिससे उसकी उपयोगरूप ज्ञानपरिणति का घात होता है, वह मूर्छित हो जाता है, यह पुद्गल की अपेक्षा से ज्ञानावरणीय कर्म का अनुभाव समझना चाहिए। किसी व्यक्ति को अमुक खाद्य वस्तु के सेवन से अथवा पेय वस्तु के सेवन से दुःख हुआ, दुःख की अधिकता से ज्ञानशक्ति कुण्ठित हो गई। यह पुद्गल-परिणाम की अपेक्षा से अनुभाव समझना चाहिए। अत्यधिक शीत, उष्ण या धूप आदि स्वाभाविक पुद्गल-परिणाम की अपेक्षा ज्ञानशक्ति का ह्रास परतः समझना चाहिए। ये तीनों परतः अनुभाव हैं।
बाह्यनिमित्त के बिना भी जीव ज्ञानावरणीय कर्म के उदय से जानना चाहते हुए भी ज्ञातव्य वस्तु का ज्ञान नहीं कर पाता, उपार्जित ज्ञान विस्मृत हो जाता है, उसकी ज्ञान-शक्तियाँ आवृत-कुण्ठित हो जाती हैं, यह ज्ञानावरणीय कर्म का स्वतः (निरपेक्ष) अनुभाव है।
. ज्ञानावरणीय कर्म की उत्तर प्रकृतियाँ : सर्वघाती भी, देशघाती भी ज्ञानावरणीय कर्म की उत्तरप्रकृतियाँ सर्वघाती और देशघाती दोनों प्रकार की हैं। जो प्रकृति स्वघात्य ज्ञानगुण का पूर्णतया घात करे, वह सर्वघाती है और जो प्रकृति स्वघात्य ज्ञानगुण का आंशिक रूप से घात करे, वह देशघाती है। मतिज्ञानावरण, श्रुतज्ञानावरण, अवधिज्ञानावरण, मनःपर्यायज्ञानावरण, ये चार प्रकृतियाँ देशघाती हैं। जबकि केवलज्ञानावरण सर्वघाती है। सर्वघाती कहने का तात्पर्य है-प्रबलतमरूप से ज्ञानगुण को आवृत एवं कुण्ठित करने वाला। अतः केवलज्ञानावरणीय कर्म सर्वघाती होने पर भी आत्मा के ज्ञानगुण को सर्वथा आवृत नहीं करता; अपितु वह केवलज्ञान का सर्वथा निरोध करता है। यद्यपि निगोदस्थ जीवों में उत्कटरूप से ज्ञानावरणीय कर्म का उदय रहता है, तथापि उनमें ज्ञान पूर्णरूप से तिरोहित नहीं होता। यदि पूर्णरूप से जीव में ज्ञान समाप्त हो जाए तो जीव (आत्मा) अजीव हो जाएगा।
वस्तुतः ज्ञान तो सूर्य है, आत्मा का मूल गुण है। किन्तु उस के स्वयं-प्रकाशित गुण पर कर्मवर्गणाओं का आवरण आ जाने के कारण उसका प्रकाश फीका पड़ जाता है। जैसे-किसी बल्ब पर कपड़े का पर्दा डाल दिया जाय तो प्रकाश कम दिखाई देगा। अगर उस बल्ब पर चार-पांच कपड़े लपेट दिये जाते हैं, तो प्रकाश मंद, मंदतर और मन्दतम हो जाता है। उसी प्रकार ज्ञान के प्रकाश पर कर्मों का आवरण जितना न्यूनाधिक गाढ़ होगा, उतना ही ज्ञान का प्रकाश मन्द, मन्दतर, मन्दतम होगा, किन्तु
१. (क) ज्ञान का अमृत से सारांशग्रहण, पृ. २५४-२५५
(ख) प्रज्ञापना पद २३
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