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________________ २७६ कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) (६) ज्ञान का दुरुपयोग करना-वर्तमान वैज्ञानिक युग में एक से एक बढ़कर नित नये आविष्कार हो रहे हैं। विज्ञान विलक्षण बौद्धिक विकास का एक रूप है। यदि विज्ञान हिंसा से सम्बद्ध एटम बम, हाईड्रोजन बम आदि नरसंहार धन-जन हानिकारक शस्त्रों का उत्पादक बन जाता है, तो संसार पर कहर बरसा देता है, किन्तु यदि वही विज्ञान जब अहिंसा, दया और परोपकार से सम्बद्ध होकर प्राणिजगत् के रोग, दुःख, संकट, विपदाएँ दूर करता है, ऐसे साधनों का उत्पादक होकर सृष्टि को सुख-शान्ति पहुँचा सकता है। इसी प्रकार विद्या और ज्ञान प्राप्त करके, शास्त्रज्ञान प्राप्त करके जो उससे लोगों को अन्धविश्वास, कुरूढ़ि, वैषयिक सुखों की मृगमरीचिका की ओर प्रेरित करता है, जनता से धन और यश बटोरने का प्रयास करता है, अपने मौज-शौक में वृद्धि करता है, ठगता है, तो यह विद्या, ज्ञान या शास्त्रज्ञान का दुरुपयोग है। ज्ञान की शक्ति का दुरुपयोग करने से ज्ञानावरणीय कर्म का बन्ध होता है। फलतः भविष्य में सम्यक् ज्ञान की ज्योति से उत्कृष्टतः ३० कोटा-कोटि सागरोपम काल तक सर्वथा वञ्चित रहना पड़ सकता है।' बद्ध ज्ञानावरणीय कर्म का अनुभाव (फल भोग) ___ जैन कर्मविज्ञान मर्मज्ञों ने बताया है कि ज्ञानावरणीय कर्म बंध जाने के बाद जब उदय में आता है, तब वह अपना फल उस जीव को दस प्रकार से भुगवाता-अनुभव कराता है-(१) श्रोत्रावरण-कानों से सुनने की शक्ति का आवृत हो जाना, (२) श्रोत्रविज्ञानावरण-श्रोत्रेन्द्रिय द्वारा प्राप्त होने वाले ज्ञान का हास होना, सुना हुआ ज्ञान विस्मृत हो जाना, (३) नेत्रावरण-नेत्ररूप ज्ञानेन्द्रिय की शक्ति का आवृत हो जाना, (४) नेत्रविज्ञानावरण-नेत्रेन्द्रिय से होने वाले ज्ञान का ह्रास होना, नेत्रविज्ञान से वंचित हो जाना, (५) घ्राणावरण-घ्राणेन्द्रिय से होने वाले ज्ञान का आवृत होना, (६) घ्राणविज्ञानावरण-नासिकेन्द्रिय से प्राप्त होने वाली दुर्गन्ध-दुर्गन्ध का ज्ञान नहीं हो पाना। (७) रसनावरण, (८) रसनाविज्ञानावरण, (९) स्पर्शनावरण और (१०) स्पर्शविज्ञानावरण। इनका अर्थ स्पष्ट है। निष्कर्ष यह है कि ज्ञानावरणीय कर्म जब उदयाभिमुख होता है, तब प्राणी की श्रोत्रादि पांचों इन्द्रियाँ अपनी शक्ति खो बैठती हैं। ज्ञानप्राप्ति के द्वार बंद हो जाते हैं। इन शक्तियों के द्वारा होने वाला बोध रुक जाता है।२ बद्ध ज्ञानावरणीय कर्म का अनुभाव (फलभोग) स्वतः या परतः ? ज्ञानावरणीय का जो दस प्रकार का अनुभाव (फलभोग) बताया गया है, वह स्वतः और परतः, अर्थात्-निरपेक्ष और सापेक्ष दोनों तरह से होता है। पुद्गल और १. ज्ञान का अमृत से सारांशग्रहण, पृ. २४९-२५१ २. वही, सारांशग्रहण, पृ. २५१-२५३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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