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________________ १७ उत्तर - प्रकृतिबन्ध : प्रकार, स्वरूप और कारण - २ दर्शनावरणीय कर्म : उत्तर प्रकृतियाँ, स्वरूप और बन्ध के कारण ज्ञानावरणीय के पश्चात् दर्शनावरणीय कर्म का क्रम है। वैसे देखा जाए तो ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणीय दोनों कर्म सगे भाई जैसे हैं। ज्ञानावरणीय प्राणियों के विशेष ज्ञान को रोकता - ढकता है, जबकि दर्शनावरणीय. कर्म प्राणियों के सामान्य ज्ञान को रोकता - ढकता है। ज्ञान जिस प्रकार आत्मा का अनुजीवी निजी गुण है, दर्शन भी आत्मा का अनुजीवी निजी गुण है। ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणीय कर्म में अन्तर प्रश्न होता है - ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणीय दोनों एक-सा ही कार्य करते हैं, दोनों ही आत्मा के ज्ञानगुण को आवृत करते हैं, फिर दो भेद करने की आवश्यकता क्या थी? एक से ही काम चल जाता, क्योंकि दोनों के बन्ध के कारण तत्त्वार्थसूत्रकार ने समान ही बताए हैं; एकमात्र ज्ञानावरणीय कर्म को ही रखा जाता तो क्या - हानि थी ? इसका समाधान यह है कि दर्शन न हो, तो ज्ञान कैसे होगा ? पहले वस्तु का सामान्य बोध होता है, तत्पश्चात् वस्तु का विशेष बोध, इसलिए दोनों दो प्रकार के कार्य करते हैं। दूसरी बात, इनकी उत्तर - प्रकृतियों के भेदों में अन्तर है। ज्ञानावरणीय कर्म की उत्तरप्रकृतियाँ मतिज्ञानावरणीय आदि पांच हैं, जबकि दर्शनावरणीय कर्म की उत्तरप्रकृतियाँ नौ हैं, और वे ज्ञानावरणीय कर्म की प्रकृतियों से भिन्न कार्य करती हैं। तीसरी बात, ज्ञानावरणीय कर्म के भेदों में मनःपर्यायज्ञानावरणीय कर्म है जबकि दर्शनावरणीय कर्म के भेदों में मनःपर्यायदर्शनावरणीय कर्म नहीं है, क्योंकि मनः पर्यायज्ञान में दर्शन नहीं होता, ज्ञान ही होता है, वह सामान्य 1. को ग्रहण नहीं करता, विशेष को ही ग्रहण करता है। इन कारणों से ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणीय दो भिन्न-भिन्न कर्मों की योजना है। (२७९) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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