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________________ २६० कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) अवधिज्ञान, अवधिज्ञानावरणीय : स्वरूप और प्रकार मन और इन्द्रियों की अपेक्षा न रखते हुए केवल आत्मा के द्वारा रूपी अर्थातमूर्त पदार्थ का जो ज्ञान होता है, वह अवधिज्ञान है। अवधि का अर्थ-सीमा या मर्यादा है। वह रूपी पदार्थों को ही प्रत्यक्ष करता है, अरूपी को नहीं, यह एक मर्यादा है। वह अमुक द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की मर्यादा (सीमा) में ही रूपी पदार्थों को प्रत्यक्ष जानता है, यह दूसरी मर्यादा है। अथवा अधः शब्द नीचे (अधो) अर्थ का वाचक है। जो ज्ञान अधोऽधो विस्तृत वस्तु के स्वरूप को जानने की क्षमता रखता है, वह अवधिज्ञान है। स्पष्ट शब्दों में कहें तो इन्द्रियों और मन की सहायता के बिना आँखें बंद कर लेने पर भी हजारों माइल दूर रहे हुए सजीव-निर्जीव पदार्थों या घटना को उसी तरह जान-देख लेता है, जिस प्रकार खुली आँखों वाला जानता-देखता है। .. अवधिज्ञान के मूल दो भेद : स्वरूप और अधिकारी अवधिज्ञान के मूल भेद दो हैं-भवप्रत्यय और गुणप्रत्यय या क्षयोपशमजन्य। भव का अर्थ है-जन्म, वही (जिस गति वाले के लिए) प्रत्यय-कारण है, वह भव-प्रत्यय अवधिज्ञान है। अर्थात्-जो अवधिज्ञान उस-उस गति में जन्म लेने से ही प्रगट होता है, उसके लिए तप, संयम, व्रत आदि अनुष्ठान नहीं करने पड़ते, वह भव-प्रत्यय अवधिज्ञान है। ऐसा अवधिज्ञान नारकों और देवों को अपनी-अपनी स्थिति के अनुसार जन्म से ही होता है, जो सम्यग्दृष्टि होता है, उसे सम्यक् अवधिज्ञान होता है, और जो मिथ्यादृष्टि होता है, उसे मिथ्या अवधिज्ञान (विभंगज्ञान) प्राप्त होता है। गुणप्रत्यय या क्षयोपशमजन्य अवधिज्ञान मनुष्यों और संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चों में से किसी-किसी को तप-जप व्रतादि कारणों से प्रबल आध्यात्मिक साधना से तदावरणीय कर्मों के क्षयोपशम से होता है। उसे गुणप्रत्यय या क्षयोपशम-जन्य अवधिज्ञान कहते हैं। यद्यपि भवप्रत्यय अवधिज्ञान जन्म से मृत्यु-पर्यन्त देव-नारकों को होता है, फिर भी उसमें क्षयोपशम तो अपेक्षित है ही।२ १. (क) ज्ञान का अमृत, पृ. १९१ (ख) कर्मप्रकृति से, प. ७ (ग) अव-अधोऽधो विस्तृत वस्तु धीयते परिच्छिद्यतेऽनेनेत्यवधिः, अथवा अवधि - मयादा रूपिष्वेव । यद्वा अवधान- आत्मनोऽर्थ- साक्षात्करण-व्यापारोऽवधिः । अवधिश्चासौ ज्ञानं चावधिज्ञानम् । -नन्दीसूत्र टीका (घ) रूपिष्ववधेः। -तत्त्वार्थ सूत्र १/२८ २. (क) द्विविधोऽवधिः । -तत्त्वार्थसूत्र १/२० (ख) ओहिनाण-पच्चरखं दुविहं पण्णत्तं, तं जहा-भव पच्चइयं खाओवसमियं च। -नंदीसूत्र ६ (ग) तं च ओहिनाणं दुविहं-भवपच्चइयं गुणपच्चइयं चेवा -षट्खण्डागम १३ (घ) दोहं भवपच्चइए पण्णत्ते त.-देवाणं चेव नेरइयाण चेव ।-ठाणांग, स्थान २ उ. १ सू. ६१ (ङ) भवप्रत्ययोऽवधिर्देवनारकाणाम् । -तत्त्वार्थसूत्र १/२१ (च) दोहं खओवसमिए पण्णते, ते.-मणुस्साणं चेव पंचिंदिय-तिरिक्खजोणियाणं चेव । -स्थानांग, स्था. २, उ. १ सू. ७१ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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