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________________ उत्तर-प्रकृतिबन्धे : प्रकार, स्वरूप और कारण-१ २६१ गुणप्रत्यय अवधिज्ञान के छह प्रकार गुणप्रत्यय अवधिज्ञान भी जिन मनुष्यों या पंचेन्द्रिय तिर्पञ्चों को होता है, वह भी सबको एक सरीखा नहीं होता, अपनी-अपनी स्थिति तथा क्षयोपशम की न्यूनाधिकता के अनुसार न्यूनाधिक रूप में होता है। इसीलिए गुणप्रत्यय अवधिज्ञान के वृद्धि-हानि की अपेक्षा से ६ भेद बताए हैं-अनुगामी, अननुगामी, वर्धमान, हीयमान, प्रतिपाती और अप्रतिपाती। अनुगामी-जो अवधिज्ञान अपने उत्पत्ति क्षेत्र को छोड़कर दूसरे स्थान पर चले जाने पर भी विद्यमान रहता है, वहाँ भी उतने ही द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की सीमा में जानता है। __अननुगामी-जो अवधिज्ञान साथ न चले, जिस स्थान पर उत्पन्न हुआ, उसी स्थान में स्थित होकर पदार्थों को जानता है, उसे अननुगामी कहते हैं। वर्धमान-जो अवधिज्ञान उत्पत्ति के समय अल्पविषय वाला होने पर भी परिणाम विशुद्धि के साथ द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की मर्यादा को लिए दिनों-दिन अधिकाधिक बढ़े, अधिकाधिक विषय वाला हो। हीयमान-जो अवधिज्ञान उत्पत्ति के समय अधिक विषय वाला होने पर भी परिणामों की अशुद्धि के कारण दिनोंदिन क्रमशः अल्प, अल्पतर और अल्पतम विषय वाला हो। __ प्रतिपाती-प्रतिपाती का अर्थ है-गिर जाना, पतन होना। जो अवधिज्ञान प्रतिपाती-अर्थात्-गिर जाने वाला हो। वायु के झोंके से जलते हुए तीपक के सहसा बुझ जाने के समान, जीवन के किसी भी क्षण में अकस्मात् लुप्त हो जाए, फिर उत्पन्न हो और लुप्त हो जाए। अप्रतिपाती-अवधिज्ञान एक बार प्राप्त होने पर फिर कदापि लुप्त न हो, स्वभावतः अपतनशील हो। केवलज्ञान होने पर भी यह ज्ञान लुप्त न होकर केवलज्ञान में समा जाता है। कहीं कहीं प्रतिपाती और अप्रतिपाती के स्थान पर अनवस्थित और अवस्थित ये दो नाम हैं। इन दोनों का तात्पर्य भी प्रायः प्रतिपाती-अप्रतिपाती के समान द्रव्यादि की अपेक्षा अवधिज्ञान का निरूपण द्रव्यादि चतुष्टय की अपेक्षा अवधिज्ञान का वर्णन इस प्रकार है १. (क) छविहे ओहिनाणे पण्णते तंजहाअणुगामिते, अणाणुगामिते, वड्माणते, हीयमाणते, पडिवाती, अपडिवाती । -स्थानांग, स्थान ६ सू. ५२६ (ख) नंदीसूत्र ८ (ग) अणुगामि वड्डमाण पडिवाईयर विहा छहा ओही। . -कर्मग्रन्थ भा. १, गा. ८ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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