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________________ उत्तर-प्रकृतिबन्ध : प्रकार, स्वरूप और कारण-१ २५९ (१२) अनुयोगसमासश्रुत-एक से अधिक दो-तीन अनुयोगद्वारों का ज्ञान। (१३) प्राभृत-प्राभृतश्रुत-दृष्टिवाद अंग के प्राभृत-प्राभृत नामक अधिकार में से किसी एक का ज्ञान होना। (१४) प्राभृत-प्राभृत-समासश्रुत-दो चार प्राभृत-प्राभृतों का ज्ञान होना। (१५) प्राभृतश्रुत-कई प्राभृत-प्राभृतों का एक प्राभृत होता है, उस एक का ज्ञान होना। (१६) प्राभृत-समासश्रुत-एक से अधिक प्राभृतों का ज्ञान होना। (१७) वस्तु-श्रुत-कई प्राभृतों का एक वस्तु नामक अधिकार होता है, उसमें से एक का ज्ञान। (१८) वस्तु-समासश्रुत-दो चार वस्तु-अधिकारों का ज्ञान होना। (१९) पूर्वश्रुत-अनेक वस्तुओं का एक पूर्व होता है। उसमें से एक का ज्ञान होना। (२०) पूर्व-समाप्त-श्रुत-दो चार आदि चौदह पूर्वो तक का ज्ञान होना। ___ अथवा द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से श्रुतज्ञान चार प्रकार का है। शास्त्रज्ञान के बल से श्रुतज्ञानी सर्वद्रव्य-क्षेत्र-काल-भावों को जानते हैं। श्रुतज्ञान के इन सब भेदों के आवरण करने वाले कर्मों को भी सामान्यपेक्षया श्रुत ज्ञानावरणीय कहते हैं। मतिज्ञानावरणीय कर्मबन्ध के जो कारण बताये थे, प्रायः वे ही श्रुतज्ञानावरणीय कर्मबन्ध के कारण हैं। मतिश्रुत दोनों सहचारी ज्ञान हैं प्रत्येक संसारी जीव में मतिज्ञान और श्रुतज्ञान दोनों होते हैं, दोनों ही ज्ञान सहचारी हैं। जो मिथ्यादृष्टि हैं, उनमें ये दोनों ज्ञान मिथ्यारूप में रहते हैं, और सम्यग्दृष्टि में सम्यक्रूप में। श्रुतज्ञानावरणीय कर्म का परिष्कृत लक्षण और कार्य निष्कर्ष यह है कि श्रुतज्ञानरूप आत्मशक्ति या आत्मगुण को जो कर्मशक्ति आच्छादित कर देती है, दबा देती है या ग्रहण बनकर उसे ग्रस लेती है, उसे श्रुतज्ञानावरणीय कर्म कहते हैं। स्पष्ट है कि श्रुतज्ञानावरणीय कर्म के उदय से बौद्धिक ज्ञान या पूर्वोक्त श्रुतज्ञान की उपलिब्ध नहीं होती। अथवा अत्यन्त मन्द होती है। विस्मृति आदि कारणों से दब जाती है।२ १. (क) अक्खर-सन्त्री सम्म साइअं खलु सपज्जवसियं च । गमियं अंगपविटुं सत्त वि एए सपडिवक्खा ॥ पज्जय-अक्खर-पय-संघाया पडिवत्ति तह य अणुओगो । पाहुड-पाहुड पाहुड वत्थू पुव्वा या स-समासा ॥ -कर्मग्रन्थ भा. १, गा. ६-७, विवेचन (मरुधर केसरी) पृ. ३४ (ख) नन्दीसूत्र में देखें-सुयनाथ परोक्ख चोद्दसविहं पण्णत्तं ते. अक्खस्सुय " अणंगपविट्ठ । २. ज्ञान का अमृत से पृ. १९१ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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